Book Title: Jine ke Usul
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ जीने का उसूल सुषुप्ति - जागृति सृजन सेवा 'सो जा वत्स, सो जा' - हृदय में शान्ति का माधुर्य लिये; 'जाग वत्स, जाग' - हृदय में जागरण का आनन्द लिये। सृजन - विध्वंस हे परम सत्ता! मैं तुम्हारा सृजन हूँ। यह सृजन सदा सार्थक होता रहे । १२३ समय सृजन में लगता है, विध्वंस तो पलक झपकते हो जाता है। सेवा से हमें मोक्ष या वैकुंठ न भी मिले, तब भी हमें मानवता की सेवा करनी चाहिये । सेवा और ध्यान सेवा करना ध्यान से अधिक सुगम है, पर बिना ध्यान के स्वयं के सत्य की अनुभूति नहीं होती । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138