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ने स्वीकार किया। बहुत कुछ पर्यालोचन के बाद मुझे वह समन्वयकारी लगा और मैंने अपने निबन्ध में उसे अपनाया है।
जैन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण कृतियों के होने की सम्भावना डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने की थी। उन्होंने का० ना० प्र०५०, भाग ८, पृष्ठ २२० पर लिखा है, "बरार जिला भाकोला के कारंजा शुभस्थानस्थ श्री सेनगरणीय, बलात्कारगणीय और काष्ठासंघीय जैन भण्डारों में सुरक्षित पुराने प्राचार्यों के प्रन्थ हैं, जो हिन्दी भाषा का पूर्ण इतिहास, लगातार शताब्दियों की, हिन्दी भाषा, जीवनी और स्वरूप को अपने अंक में छिपाये हुए हैं।" श्री मोतीलाल मेनारिया ने भी 'राजस्थानी भाषा और साहित्य में लिखा, "इस युग के साहित्य-सृजन में जैन मतावलम्बियों का हाथ विशेष रहा है।" महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने 'हिन्दी काव्य धारा' में इस युग की जन कृतियों को महत्त्वपूर्ण बताया है । डा. भोलाशंकर व्यास ने 'हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास' में इस युग की जैन कृतियों को धार्मिक मानते हुए भी प्रसाहित्यिक नहीं कहा । उन्होने डा० द्विवेदी के इस कथन को स्वीकार किया है कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए।
अब तो केवल कारंजा ही नहीं, समूचे भारत के जैन ग्रन्थ भण्डार खुल गये हैं। बहुतों की ग्रन्थतालिकाएँ भी बन गई हैं। किन्तु, हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों में वहाँ जाने की यत्किञ्चित् भी आतुरता दृष्टिगोचर नहीं होती। वे हिन्दी के मौजूदा इतिहास को स्थायी और प्रामाणिक मान बैठे हैं। भण्डारों की शोध-खोज करना, हस्तलिखित प्रतियों का अध्ययन करना और फिर इतिहास को संशोधित करना जहाँ परिश्रम-साध्य है, वहाँ वैसी लगन होनी भी अनिवार्य है । लगन नहीं है । आज भी जाने और अनजाने लोगों के अवचेतन में यह भाव
बैठा हुपा है कि जैन ग्रन्थ, जैन धर्म के उपदेश-भर हैं, न उनमें काव्यत्व है और ' न रस-प्रवणता । डा० द्विवेदी का यह कथन, "धार्मिक साहित्य होने मात्र से ' कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा
१. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ८, पृष्ठ २२०, पुरानी हिन्दी का जन्मकाल,
काशीप्रसाद जायसवाल-लिखित । २. देखिए राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ. २१ । ३. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, का.मा.प्र. समा काशी, पृ. ३७४।
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