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सूरदास की भक्ति तथा भाव की भक्ति मानी जाती है । सखा भाव के कारण ही सूर में प्रोजस्विता है। भैय्यां भगवतीदास के 'ब्रह्मविलास' में भी भोज ही प्रमुख है । यह वेतन इस मात्मा को अपना सखा मानता है, जिसमें परमात्मशक्ति मौजूद है, किन्तु जो अपने रूप को न पहचान कर इधर-उधर बहक गया है । एक सच्चे मित्र की भांति यह जीव उसे मीठी फटकार लगाता हैं । जैन कवियों का पदकाव्य इस प्रवृति से प्रीत-प्रोत है। सूर का भोज उनके मीठे उपालम्भों में खिल उठा है। जैन कवियों के उपालम्भों में भी वैसी ही सामर्थ्य है । 'तुम प्रभु कहियत दीनदयालु । श्रापन जाय मुकति में बैठे हम जु रुलत इह जगजाल ।” द्यानतराय का पद है। सूर के स्वर में मिलता-जुलता । किन्तु, जहाँ सूर के पदों में अन्य देवों के प्रति तीक्ष्णता है, वहाँ भी जैन काव्य वीर- गम्भीर बने रहे हैं ।
सूरदास धीर जैन कवियों के पद गेय काव्य हैं । उनमें विविध रागरामनियों की संगीतात्मकं लय है। गेय काव्य सदैव लोक से सम्बन्धित रहा है । वह लोक काव्य ही है । प्राकृत और प्रपभ्रंश काव्य लोक के सन्निकट रहा है । इसमें जैन साहित्य की अधिकाधिक रचना हुई। इसके अतिरिक्त रासक और लोक नाट्य भी जैन मन्दिरों में गाये और खेले जाते थे । उनके निर्माता जैन कवि थे । वहाँ हिन्दी जैन पद काव्य की पूर्व भूमिका प्राप्त हो जाती है ।
हिन्दी के प्रारम्भिक युग का नामकरण करते हुए पं० रामचन्द्र शुक्ल ने उसे 'वीरगाथा काल' कहा। इस काल की जितनी रचनाएँ उन्हें प्राप्त हुईं, मुख्यतः वीररसात्मक थीं । अतः उन्होंने अपनी प्राप्तियों के प्राधार पर जो नाम दिया, गलत तो नहीं कहा जा सकता। उनके समय में जैन ग्रन्थ भण्डारों के दरवाजे मजबूती से बन्द थे । नाथ-सिद्धों की कृतियाँ भी व्यवस्थित नहीं थीं । जो कुछ उनके सामने भाई भी होंगी, उनका साहित्यिक घरातल कमजोर होगा, जिसे उन्होंने नोटिस - मात्र कह कर छोड़ दिया। वैसे मेरी दृष्टि में पं० शुक्ल विचारवान व्यक्ति थे । यदि उन्हें आज की भांति, हिन्दी के प्रारम्भिक युग की कृतियाँ उपलब्ध हुई होतीं, तो वे उन्हें नकारते तो न । यह भी सम्भव है कि वे फिर इस युग का कुछ और ही नाम देते । मैंने अपने निबन्ध में इस काल को. 'प्रादिकाल' स्वीकार किया है । उस समय, शृंगार, वीर और शान्त तीनों रस समरूप से प्रधान थे, एक-दूसरे से न कम और न बढ़। वे 'प्रादिकाल' में ही खप सकते हैं, 'वीरगाथा काल' में नहीं, 'सिद्ध-सामंत काल' में भी नहीं । सब से पहले freevasi ने इस युग को 'प्रादिकाल' कहा था, जिसके प्रौचित्य को डॉ० द्विवेदी
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