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१० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
हार और आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि आगमों को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बर परंपरा के समान अंग आगमों के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते थे। इस परम्परा में आगे चलकर जिन स्वतंत्र ग्रन्थों और आगमों की टोकाओं का निर्माण हुआ उनमें अर्धमागधी आगम साहित्य की सैकड़ों गाथाएँ और उद्धरण प्राप्त होते हैं। अतः उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं। इस निष्कर्ष की सत्यता को उनकी निम्न मान्यताओं की समरूपता में स्पष्टतः देखा जा सकता है-१. बोटिक और यापनीय दोनों ही मुनि के लिए उत्सर्ग मार्ग की दृष्टि से अचेलता के पक्षधर हैं तथा दोनों आचारांग आदि आगमों को उपस्थिति को स्वीकार करते हैं और उनके वस्त्र, पात्र सम्बन्धी उल्लेखों को आपवादिक मानते हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा आचारांग आदि अंग आगमों का विच्छेद मानतो है और वस्त्रधारी को किसी भी स्थिति में मुनि नहीं मानती है। पुनः यापनोय और बोटिक दोनों ने स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं किया है और साध्वी में वस्त्र ग्रहण होते हुए भी महाव्रतों का सद्भाव माना तथा स्त्री को दोक्षा को स्वीकार किया। जबकि दिगम्बर परम्परा स्त्री-दीक्षा एवं स्त्री-मुक्ति का निषेध करती है। संक्षेप में आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों को मान्य करने और स्त्रीमुक्ति का निषेध न करने से बोटिक और यापनीय एक परम्परा के सूचक हैं । अतः श्वेताम्बर साहित्य में प्रयुक्त बोटिक शब्द यापनोयों का हो पर्यायवाची है । बोटिक शब्द की व्याख्या
प्राकृत 'बोडिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण बोटिक किया गया है। उत्तराध्ययनसत्र की शान्त्याचार्य की टीका में बोटिक शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया-'बोटिकाश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन'१ अर्थात् चारित्रिक विकलता के कारण मात्र मुण्डित बोटिक कहे जाते हैं । किन्तु इस व्याख्या से बोटिक शब्द पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, मात्र बोटिकों के चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
मेरी दृष्टि में प्राकृत में 'बोडिय' के स्थान पर 'वाडिय' शब्द होना चाहिए था जिसका संस्कृत रूप वाटिक होगा। 'वाटिक' शब्द का
१. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका, पृ० १८१ ।
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