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२३ जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान में सरस्वती की उपासना ईसा की प्रथम द्वितीय शती से ही होने लगी थी। ग्रन्थों के आदि मंगल में श्रुत-देवता के रूप सरस्वती के वंदन की परम्परा प्राचीन है। सरस्वती की स्तुति में अनेक स्तोत्रों की रचना जैन आचार्यों ने की है। उसे जिनवाणी का प्रतिनिधि माना जाता है। उपलब्ध सरस्वती की मूर्तियों में मथुरा से उपलब्ध जैन सरस्वती की प्रतिमा ही प्राचीनतम है, जो ईसा की प्रथम शती के लगभग की है। मथुरा के अतिरिक्त पल्लू-बीकानेर और लाडनूं की जैन सरस्वती की प्रतिमाएं अपने शिल्प-सौष्ठव के लिए लोक-विश्रुत हैं।
प्राचीन जैनागमों में मणिभद्र, पूर्णभद्र, तिन्दुक जैसे यक्षों और बहुपुत्रिका नामक यक्षी की उपासना के संकेत मिलते हैं। इसी प्रकार हरिणेगमेष की उपासना के संकेत अंग-आगमों में और मथुरा के शिल्पांकनों में मिलते हैं, किन्तु इन उपासनाओं को जैनधर्म की ओर से कोई वैधता नहीं दी गई थी। जैनधर्म में यक्ष-यक्षियों की उपासना को वैधानिक मान्यता तो तभी मिली जब इन यक्ष-यक्षियों को तीर्थंकरों के शासन रक्षक देवों के रूप में स्वीकार किया गया।
ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा के जैन अंकनों में नैगमेष, सरस्वती और लक्ष्मी के अंकन लगभग ईसा की प्रथम, द्वितीय शती से उपलब्ध होते हैं। 'जिन' की माता को दिखाई देने वाले चौदह स्वप्नों में भी चतुर्थ स्वप्न लक्ष्मी का तथा छठे एवं सातवें स्वप्न क्रमशः सूर्य और चन्द्र के माने गये हैं। इससे यह फलित होता है कि चौबीस तीर्थंकरों के बाद जैन परम्परा में लक्ष्मी और सरस्वती इन दो देवियों का प्रवेश हुआ। उसके बाद सोलह महाविद्याओं और चौबीस यक्षियों की उपासना प्रारम्भ हुई होगी। चौबीस यक्षियों में भी प्रमुखता पद्मावती की ही रही। जैनमंदिरों में पद्मावती की स्वतंत्र देवकुलिकाएँ प्रायः सर्वत्र पाई जाती हैं। इनके बाद अम्बिका और चक्रेश्वरी की स्वतंत्र मूर्तियाँ बनीं। यक्षों में मणिभद्र प्रमुख रहे। इनकी भी स्वतंत्र देवकुलिकाएँ श्वेताम्बर मंदिरों में प्रायः पाई जाती हैं। बाद में प्रत्येक तीर्थ में क्षेत्रपाल के रूप में भैरवों की उपासना भी होने लगी।
जैनधर्म में यक्षियों की उपासना में तन्त्र का प्रभाव है। इसका प्रमाण यह है कि जैन परम्परा में यक्षियों की जो सूची है उनमें से अधिकांश का नामकरण तांत्रिक हिन्दू परम्परा के अनुसार ही है यथा-चक्रेश्वरी, काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, गौरी, गान्धारी, तारा, चामुण्डा, अम्बिका, पद्मावती आदि । यह सत्य है कि जैनों ने हिन्दू देवकुल की देवियों को स्वीकार करके उन्हें तीर्थंकरों की उपासक देवियोंके रूप में प्रस्तुत किया है फिर भी जैन परम्परा में यक्षी उपासना
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