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ॐ श्री महावीराय नमः
गणधरवाद
प्रथम गणधर : 'आत्म-संशय'
त्रिलोकनाथ भगवान् श्री महावीर परमात्मा प्राज से २५०० वर्ष पूर्व हुए थे। वे आजन्म महाविरागी थे तथा यह भी निश्चित रूप से जानते थे कि इसी भव में मोक्ष-प्राप्ति होगी, फिर भी ३० वर्ष की वय में मार्गशीर्ष (गु० कार्तिक) कृष्णा १० को गृहस्थावास छोड़कर प्रतिज्ञापूर्वक अणगार बने, चारित्र ग्रहण कर अप्रमत्त मुनि बने ! पर कारण क्या था ? चारित्र ही जीवन का कर्तव्य है। इसी से मोक्ष प्राप्त होता है । चारित्र ग्रहण करते ही उनमें चौथा मन: । पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। प्रत्येक तीर्थ कर देव के लिए ऐसा नियम है कि वे गर्भ में से ही तोन ज्ञान वाले होते हैं और दीक्षा अंगीकार करते समय चौथा ज्ञान उत्पन्न हो ही जोता है। दोक्षा लेने के पश्चात् प्रभू श्री महावीर देव ने १२।। वर्ष तक घोर तपस्याएं की तथा प्रायः सदा कार्योत्सर्ग में ही रहे। इस काल में दैविक तथा मनुष्य-तियं चादि के भयंकर उपसर्ग और शीत-तापादि के घोर परिषह सहन किये। १२।। वर्ष में निद्रा का समय कितना ? एक मुहर्तमात्र ! अहा ! कैसी जागृति ! कैसी लगन ! कवि कहते हैं :
'साडा बार वरस जिन उत्तम वीरजी भूमि न ठाया हो, घोर तपे केवल लह्या तेहना पद्मविजय नमे पाया'
-नवपदजी पूजा
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