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उत्तर-आकाश के विकार नियत है। संध्या प्रातः व सायं ही होती है । बादल विशेष कर वर्षा ऋतु में ही आते हैं । इन्द्र-धनुष भी प्रातः व सायं ही पानी के बादलों में से सूर्य रश्मि पार हो तभी बनता है; जब कि सुख-दुःख अनियमित रूप से भी होते दिखाई देते हैं, अतः उन्हें सहज नहीं कह सकते । इतना ही नहीं आकाशीय विकार भी निश्चित काल और निश्चित संयोगो में ही होते है, इससे पता चलता है कि ये सब भो मात्र स्वभाव से नहीं किंतु कारणवश उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःख स्वभाव से नहीं परन्तु कर्मरूपी कारण मिलें, तभी होते हैं ।
प्रश्न--ठीक हो, तो फिर आत्मा में कर्म के विकार स्वाभाविक मानो।
उत्तर-कारण बिना कभी कार्य नहीं बनता । स्वभाव भी एक आवश्यक कारण है किंतु उसके साथ काल, पुरुषार्थ, निमित्त-साधनादि कारण भी आवश्यक हैं।
प्रश्न-पाकाश में सीधे सीधे विचित्र विकार होते है, वैसे ही शरीर में सीधे सीधे सुख-दुःखादि विकार हों। अर्थात् सुख-दुःखादि का कारण सीधा शरीर ही कहो, बीच में कर्म को लाने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-शरीर कारण रूप से स्वीकृत है. परन्तु इतना लिख लो कि कर्म दल भी शरीर (कार्मरण) ही है । यदि इसे न मानें तो वर्तमान शरीर को छोड़ कर गई हुई आत्मा बाद के भव में कारणाभाव में स्थल शरीर कैसे ग्रहण करे ? और वह भी विशेष प्रकार का ही कैसे ग्रहण करती है ? अर्थात् ऐसा नहीं होना चाहिये । इससे तो यहां की मृत्यु से ही संसार का अन्त और मुक्ति ही हो जाय ! दूसरी आपत्ति यह. कि यदि अशरीरी के लिए भी संसार हो तब तो मोक्षगत प्रात्माओं को भी यह हो और इससे तो मोक्ष की प्रास्था ही उठ जाय ।
प्रश्न-मूर्त कर्म का प्रमूर्त कर्म के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर- (१) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अमूर्त होने पर भी उनका
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