Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 72
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१ (१) वैद्य के अभाव में ? (२) या औषधि क्षय के कारण ? है तो यह कैसे ? क्या प्रसाध्यता के प्रभाव में ? श्रथवा (१) वैद्य के प्रभाव में नहीं, (३) आयु के क्यों कि वैद्य होते हुए भी कई मरते हैं । क्यों कि इसी औषधि से पूर्व क्षय से कहो, तो यह प्रायुष्य (२) इसी प्रकार औषधि की कमी से भी नही, में नीरोगिता की प्राप्ति हो चुकी है । (३) श्रायु के कर्म कहां से आया ? एक ही माता के दो पुत्रों की मृत्यु में अन्तर होता है, दूसरा पता चलता है कि प्रायुष्य चैतन्यात्मक देह का धर्म नहीं। तो कहना चाहिये कि श्रात्मा ही पूर्व भव से ऐसा कर्म लेकर भाई है, जो पूर्ण होते ही श्रात्मा का संबंध छूट गया, जिससे मुर्दों में चैतन्य नही दीखता । तात्पर्य यह है कि चैतन्य भूत का धर्म नहीं है । 'घड़े आदि भूत समूह में अथवा मुर्दे के भूतपंचक में विशिष्ट संयोग नहीं, अगर निकल गई है, अतः चैतन्य नहीं' - ऐसा यदि कहते हो तो इसमें भी 'विशिष्ट' का अर्थ तो यही कि आत्मा निकल चुकी है। प्रश्न- चैतन्य शरीर का धर्म दीखता है इसे इसका धर्म नहीं और अन्य का कहना यह 'घड़े का दीखता लाल वर घड़े का नहीं पर अन्य का - ऐसी मान्यता जैसा क्या प्रत्यक्ष विरुद्ध नहीं लगता ? उत्तर — मात्र प्रत्यक्ष को क्या करे ? भूमि में से निकलता हुआ अंकुर भूमि का दिखाई पड़ने पर भी थोड़े ही भूमि का धर्म माना जाता है ? यह तो बीज का धर्म है, अन्यथा बिना बीज के यह क्यों नहीं निकलता दीखता ? (१) वैसे ही बिना जीव उसी शरीर में चैतन्य न होने से, चैतन्य शरीर का नहीं किन्तु जीव का ही धर्म है । जहां प्रत्यक्ष का बाधक अनुमान प्रमाण मिलता है वहां प्रत्यक्ष विरोध नगएय बन जाता है । नाज प्रातः से खाया नहीं, और दुपहर को पेट में दर्द हुआ, फिर भी यह दर्द श्राज के प्रत्यक्ष भूखे रहने से नहीं हुआ परन्तु अगले दिन अधिक ठूस कर खाने से हुआ है । यहां आत्मा का साधक अनुमान मिलता है जो प्रत्यक्ष विरोध को प्रकिचित्कर सिद्ध करता है । For Private and Personal Use Only

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