Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 81
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० (६) भ्रम भी स्वयं सत् है अथवा प्रसत् ? यदि भ्रम सत् है तो उतना सत् होने से 'सब शून्य असत्' इस सिद्धान्त का भंग हो गया ! अगर भ्रम प्रसत् है तो यह स्वप्न, यह अस्वप्न' इसका विषय सत् ही हुआ ! भ्रान्ति को असत् स्वरूप जानने वाला ज्ञान सत् सिद्ध होगा। इस प्रकार शून्यता सत् अथवा असत् ? यहां भी यही आपत्ति। (७) शून्यता प्रमाण से सिद्ध करनी होती है । अब वहां लगाया प्रमाण यदि सत तो उतना सत् रहने से सर्व-शून्यता नहीं; प्रमाण यदि असत् तो वैसे प्रमाण से शून्यता सिद्ध नहीं होगी। __ अब पूर्व पक्ष के प्रथम पांच विकल्पों की समीक्षा करें : (१) पहिले मानना कि 'वस्तु की सिद्धि सापेक्ष है' और फिर कहना कि 'सिद्धि किसी से नहीं', तो यह तो परस्पर विरोधी भाषण है। अगर कहें 'यह तो परमत की अपेक्षा सापेक्ष हैं' तो पर और परमत तो मान ही लिया ! वे हो सत् ठहरेंगे, शून्य नहीं । (२) 'बीच की अंगुली बड़ी, पहलो छोटो' इस प्रकार एक साथ प्रथम तो ह्रस्व-दीर्घ की बुद्धि करना, और फिर कहना कि 'बड़ी छोटी वस्तु सापेक्ष होने से प्रसिद्ध है, असत् है,' यह असंगत है। (३) दरअसल वस्तु में सत्त्व सापेक्ष ही नहीं; क्योंकि सत्त्व अर्थक्रियाकारित्व रूप है । अर्थ-क्रिया पदार्थ की उत्पत्ति-क्रिया, अर्थात् कार्योत्पत्ति । यदि ह्रस्व दीर्घ आदि पदार्थ स्वकीय ज्ञानरूप कार्य कराते हैं तो वे अर्थक्रिया-कारी होने से सत हैं। यदि सर्वथा असत् हों तो ज्ञानात्मक कार्य नहीं करवा सकते। (४) छोटी अंगुली पहली कही जाती है वह मध्य की अपेक्षा, असत् आकाशकुसुम की अपेक्षा से नहीं। अथबा दीर्घ की अपेक्षा से पहली अंगुली ह्रस्व है, किन्तु आकाशकुसुम ह्रस्व नहीं। इससे सूचित होता है कि मध्य व प्रथम अंगुली सत है। इतना ही नहीं, परन्त (५) वस्तु अनंत धर्मात्मक होने से उसमें ह्रस्वत्वादि भी सत् हैं, जो मात्र तदनुकूल सहकारी मिलने पर अभिव्यक्त होते हैं । यदि ह्रस्वत्व सत् न हो For Private and Personal Use Only

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