Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 125
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ विशिष्ट कारण प्रा मिलने से ज्ञानावरण कर्म का भारो क्षयोपशम हुआ, और वहीं द्वादशांगी आगम तथा तदन्तर्गत चौदह पूर्वो की रचना की । प्रभु ने इस पर सत्यता की और अन्य को पढाने की मुद्रिका अकित करते हुए वासक्षेप किया। इस प्रकार ये ग्यारहों ही गणधर महर्षि बने । आत्मा-कर्म-पंचभूत-परलोक-बंध-मोक्ष आदि तत्व समझ कर इनका ज्ञान आत्मसात् करें व निजी अविनाशी प्रात्मा को बंधन-मुक्त करने का ही मुख्य पुरुषार्थ सभी करे-इसी शुभेच्छा के साथ इस लेख में मतिमंदतादि कारणों से जिनाज्ञा-विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए मिच्छा मि दुक्कडं । -पू० गुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि प्राचार्यदेव श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी के शिष्याणु भानुविजय For Private and Personal Use Only

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