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- इष्ट विषयसंयोग बढ़ने पर भी सुख नहीं बढता, उल्टा दुःख का अनुभव होता है, अतः विषयसंयोग और सुख की व्याप्ति कहां रही ? इसके विपरीत, संयोगों से मुक्त मुनि यहां भी महान् सुख का अनुभव करता है । तो सर्व कर्म- संयोग - नष्ट होने पर अनन्त सुख का योग क्यों न बने ?
(१३) सुख ज्ञान की भांति आत्म-स्वभाव है, अतः ज्ञानावरण का क्षय होने पर अनन्त ज्ञान प्रगट होता है । इसी तरह वेदनीय कर्म का क्षय होने पर - अनन्त सुख प्रकट हो सकता है । वह सुख शातादि की भांति नया उत्पन्न नहीं किन्तु प्रकटीकृत श्रात्म-स्वभावरूप है, अतः नित्य है ।
'शरीर' 'वा वसन्तं......' वेद-पंक्ति में प्रियाप्रिय का स्पर्श न करने का कहा वह निषेध पुण्य-पापाधीन सुख-दुःख के सम्बन्ध में है । अर्थात् जैसे - सुख - दुःख मोक्ष में नहीं होते हैं; किन्तु यह निषेध नित्य सहज सुख के सम्बन्ध में नहीं । 'जरामयं वा श्रग्निहोत्र' का हउसमें 'वा' शब्द सूचित करता है कि • स्वर्गार्थी वैसा करे अथवा मोक्षार्थी वैसा न करे। सभी के लिए विधान होता तो 'वा' नहीं कहते ।
सारांश, मोक्ष है, और वह अनन्त ज्ञानमय, अनन्त सुखमय है । मुक्तात्मा • सदा के लिए ऊपर लोकान्त में स्थिर होती हैं ।
प्रभु के इस प्रकार समझाने से प्रभास ब्राह्मण शंका रहित बने, और - अपने ३०० विद्यार्थियों के साथ दीक्षा लेकर प्रभु के शिष्य बने ।
ग्यारहों ही दीक्षित विप्र मुनि फिर वही भगवान को वंदना कर विनय पूर्वक भयव ! किं तत्तं ? - 'भगवन ! तत्त्व क्या है ?' ऐसा प्रश्न तीन बार पूछते हैं, और सुरासुरेन्द्र पूजित जगद्गुरू श्री महावीर परमात्मा ने एक एक बार के प्रश्न के उत्तर में क्रमशः 'उप्पन्ने इ वा' 'विगमे इ वा' 'धुवे इ वा' 'जगत उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, ध्रुव रहता है' ऐसे उत्तर दिये । इन पर चिंतन करने में (i) प्रभु के श्रीमुख से उच्चारित ये उत्तर (ii) अपने पूर्वभव में उपा'जित गरधर नाम कर्म के पुण्य का उदय, (iii) श्रौत्पातिकी श्रादि बुद्धि, इत्यादि
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