Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 122
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra -ok १११ " भावभूत हो, वही है । विनश्वर की अपेक्षा रखने वाला सुख तो उस विनश्वर के नष्ट होते ही दुःख रूप में पलट जायगा । इसीलिए पुण्य सापेक्ष शाता का सुख वास्तव में दुःख ही है; क्योंकि शुभकर्मोदयजन्य होने से कर्मोदय खत्म होने पर शाता नष्ट, इससे भारी दुःख होता है । www.kobatirth.org कर्मोदय जन्य है ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐसा तो उल्टा क्यों नहीं कि पापोदयजन्य दुःख सुख ही हैं क्योंकि -02 उ०- ऐसा इसलिए नहीं कि सुख रूप से अनुभव नहीं होता है । प्र० – तब तो फिर इष्ट विषय- संयोग में सुख का भी अभ्रान्त अनुभव है । किसी भी भ्रान्त व्यक्ति को दुःख का - नहीं, यह तो दुःखरूप होते हुए भी मोहमूढ़ता के कारण सुखरुप लगता है । यह विषयसुख दुःखरूप इसलिए कि (१) जैसे खुजालादि की उठी हुई चल रूपी दुःख के प्रतिकार मात्र रूप से ही खुजाल में सुख लगता है, इस प्रकार विषय की उत्सुकता से प्रज्वलित अरतिरूप दुःख के प्रतिकार रूप में ही सुख लगता है । इसीलिए तो उत्सुकता मिटते ही यही विषयसंयोग सुखरूप नहीं, - बल्कि दुःखरूप लगता है । मिठाई अधिक खाने के पश्चात् इसे देखते ही प्ररुचि होती है । इसका अर्थ यह कि पेट भर जाने से उत्सुकता की अरति मिटी श्रीर - कामचलाऊ दुःख - प्रतिकार हो गया, जिससे सुख लुप्त । प्रारम्भ में श्रमुक संयोग- परिस्थिति प्र० - बाद में कुछ भी हो, परन्तु रहे वहां तक सुख का अनुभव सच्चा न ? उ०- ऐसे सुख के उपासक ने तो भून्ड - म्लेच्छ का मुंह और नरक का अवतार मांग लेना पड़ेगा। क्योंकि भूड के मुख की प्रमुक प्रकार के रस की स्थिति है, अतः उसे विष्ठा में बढ़िया श्रानन्द श्राता है । इसी प्रकार म्लेच्छ को परम श्रानन्द का अनुभव शराब और मांस में होता है । जब कि नरक के जीव को वहां से छूटने की परिस्थिति में प्रतिशय सुख का अनुभव होता है । यदि यह ग्राह्य हो, तो ऐसी परिस्थिति में जाना चाहिये । वहां यदि कहते हो For Private and Personal Use Only

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