Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 120
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ स्पर्श नहीं करते । यहां कोई 'वाऽवसन्त' इस प्रकार 'वा' के बाद यदि 'अ'कार मान कर 'कहीं भी न रहने वाला' अर्थात् 'सर्वथा नष्ट' ऐसा भाव लें, तो गलत है; क्योंकि ऊपर जैसा कहा गया है, अशरीर कोई भाव-पदार्थ ही है, उसके साथ यह घटित नहीं होता। मोक्ष में ज्ञान की सत्ताः (६) प्र०-तो भले ही मोक्ष हो, परन्तु इसमें अब इन्द्रियादि साधन न होने से ज्ञान नहीं होता. अत: वह अजीव के समान होगा। उ०-ज्ञान यह आत्मा का करणसाध्य आगन्तुक धर्म नहीं, किन्तु सहज स्वभावभूत धर्म है । यह प्रावरणों से प्रावृत है । इन्द्रियादि साधन इन प्रावरणों को प्रांशिक हटा कर ज्ञान प्रकट करते हैं । तप-संयमादि द्वारा सर्व प्रावरण दूर होते ही संपूर्ण ज्ञान सदा के लिए प्रकट हो जाता है। इसलिए मोक्ष में सर्वदा ज्ञान होता है। ज्ञान क्यों प्रात्मस्वभाव ? :-ज्ञान यदि आत्मा का स्वभावभूत धर्म न हो तो फिर प्रात्मा का चैतन्य स्वरूप ही क्या ? कुछ नहीं, प्रथम से ही अजीव काष्ठादि जैसा ! ऐसा हो तो (i) 'ज्ञान प्रात्मा में ही प्रकट हो, परन्तु अजीव शरीर, इन्द्रिय प्रादि में नहीं, ऐसा क्यों ? तथा (i) इन्द्रियादि कभी कभी निष्क्रिय होते हुए भी स्मरणादि ज्ञान कैसे हो सके ? (iii) व्याख्यानादि में महष्ट अश्रु तार्थ का स्फुरण कैसे व किसे होता है ? (iv) देखने वाली प्रांख वही होते हए भी अम्यास बढ़ने के साथ जवाहरात पर झटिति पहिचान व सूक्ष्म दर्शन चिन्तन होता है यह कैसे ? अतः कहिये कि ज्ञान प्रात्मा का मूल स्वरूप है। सर्व प्रावरण हटते ही स्वच्छ प्राकाश के सूर्य की भांति प्रात्मा पूर्ण ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित होती है । यदि मोक्ष होने पर ज्ञानवत् सभी धर्म नष्ट ही हो जाते हों तो सत्व-द्रव्यत्वादि भी नष्ट हो जाने चाहिये, और ये यदि मौजूद रहते है तो ज्ञान मौजूद क्यों न रहे ? For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128