Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 119
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ (७) प्र०-एक बार रागादि का प्रभाव तो हो गया, परन्तु पुनः रागादि विकार न हों, इसमें क्या प्रमाण ? ___ उ०-वस्तु में विकार दो प्रकार के होते हैं, १. निवर्त्य (पीछे मिट जाय ऐसा) विकार, २. अनिवयं (होने के बाद हटे ही महीं ऐसा) विकार । (१) सुवर्ण अग्निताप से पिघलता है यह पिघलना यानी द्र तत्व-द्रवरूप निवत्यं विकार है, क्योंकि ताप हटते ही क्रमशः यह द्रवरूप मिट कर सुवर्ण पुनः कठोर हो जाता है। (२) काष्ठ अग्नि से जलकर राख हो जाता है, इसे अनिवर्त्य विकार कहते हैं; क्योंकि अब यह राख हट कर पुनः काष्ठ नहीं होती । प्रात्मा में राग द्वेष निवत्यं विकार हैं, कर्म-संयोग से होने वाले ये कर्मसंयोग था तब तक रहे, कर्म संयोग हटते ही वे हट गए । अब कर्म संयोग भी, इसके कारणभूत मिथ्यात्वादि नहीं होने से, कभी होगा नहीं, अतः राग-द्वेष भी कभी होंगे नहीं । (८) 'अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।' यह वेद-पंक्ति भी कह रही हैं कि अशरीरी जैसा कोई व्यक्ति हैं जिसको प्रिय-अप्रिय सांयोगिक सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते । ऐसा व्यक्ति शरीररहित मुक्तात्मा है। इससे भी मोक्ष सिद्ध है । यहां ध्यान रहे कि 'अशरोरं...' इस पंक्ति का 'शरीरसर्वनाश से प्रात्मा भी सर्वथा नष्ट, अतः अब प्रियाप्रिय का स्पर्श नहीं' ऐसा अर्थ नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'अशरीरी' पद मात्र प्रभाव का बोधक नहीं, परन्तु अब्राह्मण-अगोरस आदि पद जैसे ब्राह्मणेतर मनुष्य, गोरसभिन्न अन्नादि को लागू होते हैं, वैसे अशरीरी पद किसी विद्यमान भावपदार्थ पर लागू होता है । नहीं तो 'शरीरनाश' जैसा कुछ कहते । 'अब्राह्मण' जैसा नञ् तत्पुरुष समास पद भी यदि मात्र प्रभावार्थक नहीं, किन्तु क्षत्रियादि-बोधक होता है, तो 'अशरीर' जैसे बहुव्रीहि समास पद का तो पूछना ही क्या ? फिर 'वसन्त' पद तो स्पष्ट रूप से किसी के रहने का कह रहा है । मात्र प्रभाव ही लेना होता तो साथ में 'सन्तं' पद से काम चल जाता, किन्तु 'वसन्तं' कहा इसलिए 'अशरीर' पद से लोकोपरि-स्थित आत्मा ही लेनी चाहिये । 'वा वसन्तं' में 'वा' अर्थात' 'अथवा' कह कर यह सूचित किया है कि सशरीर भी वीतराग को प्रियाप्रिय For Private and Personal Use Only

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