Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 121
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ११० www.kobatirth.org ज्ञान सर्व-विषयक क्यों ? प्र० - ज्ञान हो, सर्वज्ञता कैसे ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) उ० – यह सम्पूर्ण ज्ञान भी त्रिकाल के समस्त लोकालोक के भाव जानता है । अतीत यदि नष्ट है तो उसे प्रतीत के रूप में देखता है और अनागत यानी भावी भावों को भावी रूप मे देखता है। ज्ञान का स्वभाव ज्ञेय को जानना है, मात्र आवरण जितना हटता है उतना ही जानता है । समस्त आवरण नष्ट होने पर समस्त ज्ञ ेय को जानने में कौन बाधक है ? प्रतीत भी अतीत के रूप में ज्ञ ेय है ही, अन्यथा प्रतीत का स्मरण भी न हो । दर्पण छोटा होते हुए भी सामने जितना प्राता है उसको प्रतिबिम्बित करता है, इसी प्रकार ज्ञान के लिए जितने ज्ञ ेय हैं, उन सब को वह जान सकता है । अन्यथा मर्यादा बांधने पर तो इतना ही जाने, अधिक नहीं इसमें 'इतना' अर्थात् कितना ? उसका नियामक कौन कि अमुक संख्या के ही ज्ञ ेय जाने ? श्रतः ज्ञ ेय मात्र जानें । इस प्रकार मुक्तात्मा सर्वज्ञ होती है, वह भी ज्ञानस्वरूप से प्रति समय परिवर्तित ज्ञयों के अनुसार, परिवर्तित रहती है अन्यथा यदि एक ही स्थिर ज्ञान हो, तो वह मिथ्या हो जाय । मोक्ष में सुख कैसे ? (११) प्र० - - खैर, मोक्ष में किन्तु इसी तरह सुख के साधन पुण्य नहीं होने से सुख भी नहीं न ? दुःख - साघन पापादि नहीं तो दुःख नहीं । और सुख के आधार देह - इन्द्रिय-विषय उ०- नहीं, वहां सुख तो अनन्त श्रव्याबाध है। संसार में भी सुख का श्राधार देह - इन्द्रिय-विषयों नहीं, क्योंकि सुख का अनुभव देह - इन्द्रियों को नहीं किन्तु श्रात्मा को होता है, श्रतः सुख का आधार श्रात्मा है। सुख आत्मा का धर्म है । देह आदि तो सुख के साधन मात्र हैं और वे भी सांयोगिक सुख के साधन । सांयोगिक सुख में साधन की आवश्यकता नहीं होती । मोक्ष में सर्वकर्म - रहित श्रात्मा अगर विद्यमान है, तो इसे ज्ञान की भांति सुख क्यों न हो ? और वास्तव में सुख, किसी विनश्वर वस्तु की अपेक्षा न रखता हुआ सहज स्व For Private and Personal Use Only

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