Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 123
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ कि यह तो भूड का मतिविपर्यास है, श्रथवा नारक को महा दुःख से मोक्षमात्र है, सुख कुछ नहीं, तो यहां भी विषयसंयोग में भासित सुख में प्ररतिनिवारण मात्र को छोड़कर और क्या है ? कहो, विषयसुख उत्सुकता श्ररति का प्रतिकार मात्र है । जीमने के लिए बैठते ही महान् प्रपत्ति के समाचार आते ही पक्वान्न खाने की उत्सुकता - प्ररति उड़ जाती है, तो वहां पक्वान्न भी सुखरूप नहीं लगता । और (२) दुःख प्रतिकार भी कामचलाऊ होने से थोड़े समय के पश्चात् पुनः नवीन उत्सुकता - प्ररति जाग्रत् होती है । उसे मिटाने के लिए फिर नई बेगार. करनी पड़ती है,....... श्रौर इस प्रकार बेगार चलती रहती है । एवं (३) संसार - सुख सांयोगिक है, देह - इन्द्रिय - विषयादि पर के सापेक्ष है, पर का संयोग बना रहे तो सुख; और संयोगमात्र विनश्वर हैं, इसलिए इसके संयोग की चिन्ता बनी रहती है । श्रतः ऐसा चिता- मिश्रित सुख यह दुःखरूप ही है । अन्य प्रकार से भी (४) संसार - सुख इसलिए दुःख रूप है कि इसका परिणाम अशुभ कर्मबंध, दुर्गति-भ्रमण, और महात्रास विडम्बना है ! सुख के भ्रम में जैसे जैसे जीव विषयसंग करता रहता है, वैसे वैसे उसकी क्षुधा बढ़ती जाती है, और इसके पीछे वह महागृद्धि और पापारंभ करके भावी महा दुःखों और पाप भवों को निमंत्रित करता है । ऐसे सुख को सुख कहना विषमिश्रित लड्डू को सुखरूप मानने के तुल्य है । (१२) इस प्रकार संसार - मुख उपचरित - प्रौपचारिक होने से कहीं भी निरुपचरित सुख का अस्तित्व होना चाहिये । संसार सुख सांयोगिक पराधीन होने से सांयोगिक-स्वाधीन सुख भी कहीं होना चाहिये । मूल के बिना प्रतिकृति नहीं; मुख्य वस्तु के बिना गौरण श्रौपचारिक वस्तु नहीं । सच्चा सिंह है तो किसी व्यक्ति को उपचार से सिंह कहते हैं । प्र० - मोक्ष में किसी प्रकार के विषयसंयोग नहीं, तो सुख क्या उ० – मिठाई, लड्डू दो की ही भूख होने पर भी चार खा लिए तो For Private and Personal Use Only

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