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वातावरण में विद्यमान हैं और वे घ्राणेन्द्रिय से अनुभूत होते हैं, श्रतः सर्वनाश नहीं । इसी तरह जीव का संसार समाप्त होने के पश्चात् सर्वनाश नहीं । पवन से कज्जल उड़ गई या बादल बिखर गए, इससे इसके पुद्गल थोड़े ही सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ? पुद्गल के परिणाम विचित्र होते हैं । अभी एक इन्द्रिय से ग्राह्य हो, वही थोड़ी देर में रूपान्तरित होते ही अन्य इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य बन जाता है । नमक प्रांख द्वारा दिखाई देने वाला होते हुए भी पानी में घुलने के पश्चात् श्रांख से नहीं दिखता है; फिर भी इसका यह परिणामान्तर रसना द्वारा ग्राह्य बन जाता है । इस प्रकार मोक्ष होने पर जीव का मात्र परिणामान्तर होता है, सर्वथा नाश नहीं, और वह केवलज्ञान से दिखाई देता है ।
(२) स्वर्ण और मिट्टी का पूर्व सम्बन्ध होते हुए भी क्षार - पाकादि उपाय से वियोग हो कर शुद्ध स्वर्ण बनता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि उपायों से जीव शुद्ध मुक्त हो सकता है ।
(३) नारक तिर्यंच श्रादि तो जीव के पर्यायमात्र हैं; जैसे सुवर्ग के अंगूठी, कंगन आदि; क्योंकि जीव वे वे श्रवस्थाएं धारण करता है । अंगूठी, कंगन आदि नष्ट होने पर सुवर्ण नष्ट नहीं होता, इसी प्रकार नारकादि पर्याय नष्ट होने से जीव भी नष्ट नहीं होता ।
प्र० - कर्म से तो संसारी जीव था, कर्मनाश होने पर उस का नाश क्यों नहीं ? कारणनाश में कार्यनाश भी होता है, जैसे कि पत्र पर रेखाएं नष्ट होने पर चित्र नष्ट हो जाता है ।
उ० -
श्राकाश का नाश
- जीव कर्म से सर्जित नहीं है जिससे कि कर्मनाश होने से इसका नाश हो । कर्म तो श्रावरण रूप है, उपाधिरूप है । इसलिए जैसे बादल का नाश होने पर सूर्य का नाश नहीं होता; एवं घट के नाश के साथ नहीं होता, इसी प्रकार कर्म के नाश से जीव का भी नाश नहीं अवश्य है कि कर्म का नाश होने पर कर्मजन्य नारकत्व, तिर्यक्त्व श्रादि संसार पर्याय का नाश होता है, परन्तु जीव तो जीवत्व रूप मे विद्यमान रहता है, और वह अब मुक्ति - पर्याय वाला बन जाता है ।
होता । इतना
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