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ग्यारहवें गणधर-प्रभास
क्या मोक्ष है ?
ग्यारहवें प्रभास नामक ब्राह्मण से प्रभु कहते हैं
'हे प्रायुष्मन् प्रभास ! तुम्हें जरामर्य वैतत् सर्व यदग्निहोत्रम्' 'द्व ब्रह्मणी, परमपरं च'--ऐसी दो विरुद्ध प्रकार की वेद-पंक्तियां मिलीं, इनमें यावज्जीव अग्निहोत्र करने का विधान होने से और इसका फल तो स्वर्ग ही होने से ऐसा लगा कि मोक्ष जैसी वस्तु ही नहीं होती, अन्यथा वेदशास्त्र एसा उपदेश क्यों दें ? परन्तु ब्रह्म प्रात्मा के 'पर', 'प्रपर' ऐसे दो स्वरूप कहें, उसमें तो 'पर' अर्थात् शुद्ध-बुद्ध-मुक्त, इससे तो मोक्ष का प्रतिपादन मिला । अतः शंका हुई कि मोक्ष-वस्तु होगी या क्या ?
मोक्ष न होने का विश्वास इसलिये हुआ कि (१) दीपक अन्त में बुझ जाता है, इस प्रकार प्रात्मा सर्वथा नष्ट हो जाती है फिर मोक्ष किसका ? (२) कर्म, संयोग अनादि होने से नष्ट नहीं हो सकते, इसलिए संसाराभाव कैसे ? (३) जीव-क्या है ? नारक, तिर्यच आदि ये हो जीव । इनके नाश पर तो जोवनाश ही माना जाय, फिर मोक्ष क्या ?
परन्तु 'मोक्ष है इसके प्रमाण ये हैं(१) दीपक बुझ गया फिर भी उसकी कज्जल के सूक्ष्म तामस पुद्गल
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