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हिंसा हंसा कहां ?
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प्र०
० - तो फिर जीव-व्याप्त संसार में
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अहिंसा का पालन कैसे हो ?
उ०- शस्त्रोपहत बनी हुई पृथ्वी आदि अचेतन है; इसके उपभोग में हिंसा नहीं । वैसे यह भी समझने योग्य है कि निश्चय नय से नियम नहीं कि 'जीव मरे वहाँ हिंसा ही हो, न मरे वहां अहिंसा ही हो ।' यह भी नियम नहीं कि 'जीव कम हों वहां हिंसक हों, और अधिक हों वहां हिंसक ही बना जाय क्योंकि राजादि को मारने के दुष्ट श्रध्यवसाय वाला पुरुष न मारते हुए भी हिंसक ही है । वैद्य रोगी को कष्ट देते हुए भी अहिसक ही | पांच समिति - तीन गुप्तिवाला ज्ञानी मुनि जीव के स्वरूप का श्रौर जीवरक्षा की क्रिया का ज्ञाता हो व सर्वथा जीव रक्षा का जाग्रत् परिणाम वाला और उसमें यतनाशील हो, श्रीर कदाचित अनिवार्य हिसा हो भी गई हो, तब भी वह हिंसक नहीं । इसके विपरीत दशा में जीवन भी मरे तो भी हिंसा है, क्योंकि उसके प्रमाद परिणामअशुभ हैं । अतः प्रशुभ परिणाम यह हिंसा है; जैसे तंदुल -मच्छादि को हिंसा सोचते रहने से हिंसा लगती है ।
प्रo - तो क्या बाह्य जीव की हत्या हिंसा नहीं ?
उ०
- हिंसा और श्रहिंसा दोनों में ऐसा है कि जो बाह्य जीवहत्या अशुभ परिणाम का कार्य हो या कारण हो, वह तो हिंसा है; और ऐसा न हो वह हिंसा नहीं । जैसे निर्मोही को भावशुद्धि के कारण इष्ट शब्दादि विषयों का संपर्क रति के लिए नहीं होता, इसी तरह विशुद्ध मन वाले का अनिवार्य बाह्य जीवनाश हिंसा के लिए नहीं ।
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इस प्रकार पांच भूत सत् सिद्ध होते हैं । इनमें प्रथम चार चेतन हैं, आकाश चेतन नहीं । शास्त्र में 'स्वप्नोपमं वै सकलम् कहा, वह तो भव्य जीवों को धन, विषय, स्त्री, पुत्रादि जगत की प्रसारता बतानेवाला कथन है, जिससे इसकी आस्था छोड़कर भवभय से उद्विग्न बनकर मोक्ष के लिए प्रयत्न करें । प्रभु के इस प्रकार समझाने से व्यक्त ब्राह्मरण भी अब निःसंदेह होकर अपने ५०० विद्यार्थी के परिवार सहित प्रभु के पास दीक्षित बने ।