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५ वे गणधर-सुधर्मा
जैसा यहां वैसा ही जन्म परभव में ? पांचवे ब्राह्मण सुधर्मा को शका थी कि 'जीव यहां जैसा होता है क्या वैसा ही परभव में भी होता है ?' प्रभु महावीर ने उसे कहा कि 'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, पशवः पशुत्वम्' इस वेद-पंक्ति से 'मनुष्य मनुष्य होता है, पशु पशु होता है ऐसा जानने को मिला और 'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इस वेद-पंक्ति से जिसे विष्ठा सहित जलाया जाता है वह सियार होता है, इस प्रकार मनुष्य में से सियार भी हो सकने का पता चला, इससे तुझे शंका उत्पन्न
-असमान परभव के तर्क(१) जीव जैसा इस भव में, वैसा परभव में होता है इसके समर्थन में यह तर्क लगा कि 'गेहूँ में से गेहूं, बाजरी में से बाजरी, ग्राम में से प्राम....... इस प्रकार कोरण के अनुरूप कार्य होता है। परन्तु ऐसी मान्यता युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि शृग में से बाण, और यदि सरसों से लेप कर बोया जाए तो घास भी होती है । योनि-प्रामृत नाम के शास्त्र में प्रसमान अनेक द्रव्यों के संयोग से सर्प-सिंहादि और मरिण स्वर्णादि उत्पन्न होना बताया है। चालू व्यवहार में पीछी में से और गोबर में से भो वींछी होती दिखाई देती है।
(२) बीज के अनुरूप ही कार्य होता है तो इसे नियम के अनुसार भी असमान भवांतर हो सकता है । वह इस प्रकार कि संसार में भव का बीज कर्म
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