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उत्तरोत्तर पर्याय रूप से उत्पन्न होती हैं । ये उत्तर पर्याय समान ही हों ऐसा कहाँ है ? तो समान परभव का आग्रह क्यों ? वैसे तो इसी भव में भी कई सत्त्वआत्मत्वादि समान पर्याय होते हैं, वैसे बचपन, जवानी आदि असमान भी बनते हैं, तो वहां भी अकेले समान का ही आग्रह क्यों नहीं ? ।
प्र०-हम समानता मनुष्यत्व, पशुत्व प्रादि ही समान पर्याय तक कहते हैं ?
उ०-ध्यान में रहे कि पर्याय का बनना कारण-सापेक्ष है, और प्रस्तुत में कारणभूत कर्म-विचित्र भी है, अतः तज्जन्य पर्याय असमान भी होगा। अन्यथा मात्र मनुष्य ही क्यों ? यहां जो दरिद्र वह परभव में दरिद्र ही होगा । और श्रीमन्त श्रीमन्त ही; जो रोगी हो वह रोगी ही, और नीच कुल वाला नीच कुल में ही हो । 'हां, ऐसा ही है' ऐसा नहीं कह सकते; अन्यथा तप-दानादि क्रिया निष्फल जाय ! प्रत्यक्ष भव में भी रोगी निरोगी बनता है, दरिद्र श्रीमंत भी बनता है, यहां भी यदि असमान हो तो परभव में क्यों असमान न हो ?
(8) परभव समान ही हो तो 'शगालो वै एष........' 'अग्निहोत्र.... स्वर्गकामः.... ।' प्रादि वेदवचन निरर्थक सिद्ध होंगे । अतः 'पुरुषो वै पुरुषत्वम्....' का भाव यह है कि जो व्यक्ति स्वभाव से भद्र, विनीत, दयाल हो, वह पुनः मनुष्यायु को बांध कर मनुष्य हो सकता है ।
भगवान की इस समझाइश से सुधर्मा भी नि:शंक हो कर अपने ५०० विद्यार्थियों के परिवार के साथ प्रभु के शिष्य बनें।
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