Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 100
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उ० www.kobatirth.org प्र - प्रलोक, धर्मां०, प्रधर्मा० श्रादि होने के प्रमारण क्या ? - 'लोक' व्युत्पत्ति वाला शुद्ध पद होने से, इसका जो प्रतिपक्ष हो, वही लोक जैसे कि चेतन का प्रतिपक्ष श्रचेतन | : प्र० - - घड़ा, वस्त्र श्रादि ही प्रलोक है ऐसा मानतें हो न ? उ०- नहीं, प्रतिपक्ष इसके अनुरूप अर्थात् मेलवाला होना चाहिए । जैसे 'पंडित' किसी चेतन पुरुष व्यक्ति को कहते हैं, जड़ घड़े को नहीं । इस प्रकार अलोक यह श्राकाशरूप लोक के अनुरूप अलग श्राकाशरूप से सिद्ध है इसलिए लोकस्वरूप श्राकाश को अलोक श्राकाश से भिन्न करनेवाला धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय द्रव्य सिद्ध होता है । यह यदि न हो, तो जीव- पुद्गल - अनंत प्रकाश में तितर बितर हो जाय । फिर श्रदारिकादि - पुद्गलवर्गरणा वश जींव में बंध मोक्ष, सुख, दुःख, भव- संसरण आदि कैसे हो ? तथा जीव का जीव पर अनुग्रह भी कैसे ? श्रतः धर्मास्तिकाय जैसे पानी मछली को, वैसे जीव- पुद्गल को लोक में ही गति में सहायक होता है । गति किसी से अनुगृहीत होती है जैसे - जल से मत्स्य की गति; इससे धर्मास्तिकाय; और स्थिति भी किसी से अनुगृहीत होती है, जैसे कि कोई वृद्ध रास्ते में लकड़ी के श्राधार पर खड़ा रह सकता है; इससे अधर्मास्तिकाय सिद्ध होता है । कहा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोक्ष की आदि नहीं; मोक्ष में अनन्त समा जाते हैं : शरीरयुक्तता, काल आदि कब से शुरू हुए ? इसका प्रारम्भ है ही नहीं, अनादि से चले आ रहे हैं । सिद्धता की अर्थात् सिद्ध होना कब से प्रारम्भ हुआ, इसकी आदि नहीं । परिमित देश में भी हजारों मूर्त दीप प्रभाएँ समा जाती हैं, तो इसी सिद्ध क्षेत्र में श्ररूपी अनन्त सिद्ध समाएं, इसमें क्या आश्चर्य है | यह वचन सिद्ध के सम्बन्ध में ' स एष विगुणो विभुर्न बध्यते' ८६ इस प्रकार समझाने से मंडित विप्र भी समझ गए और ३५० विद्यार्थीगरण के साथ प्रभु के शिष्य बने । For Private and Personal Use Only

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