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सुख रूपी, देह रूपी, इसके कारण कर्म का स्वरूप कैसा ? :
प्र०
-कर्म का कार्य, (१) देहादि तो मूर्त है, और (२) सुख दुःख, क्रोध मानादि ये मूर्त हैं; तो कारण मूर्त ही अथवा अमूर्त ही ऐसा नियम कैसे बने ?
उ०- कार्य सुखादि का समवायी कारण तो कर्म नहीं परन्तु जीव है । यह तो मूर्त है ही । अर्थात् अमूर्त कार्य का अमूर्त कारण मिल के रहा । श्रब कर्म की बात,-कर्म को श्रसमवायी कारण होने से ब्राह्मी आदि की भांति मूर्त होने में बाधा नहीं है । इस प्रकार स्वभाववाद का निराकरण श्रौर कर्मवाद सिद्ध हुना ।
अब के पुत्र अथवा पाप की मान्यता का निराकरण इस प्रकार, (३) पुण्य के उत्कर्ष से सुख का उत्कर्ष तो ठीक है; परन्तु पुण्य के अपकर्ष (हानि) से सुख का अपकर्ष हो, किन्तु दुःख बहुलता कैसे ? यह तो पाप के उत्कर्ष से ही होना चाहिये । पथ्य आहार घटने पर शरीर की पुष्टि कम हो, यह घट सकता है; परन्तु उससे रोगवेदना का जन्म या वृद्धि थोड़े ही हो सकती है ? यह तो कुपथ्य श्राहार की वृद्धि हो तभी होती है ।
(४) पुण्य घटने से छोटी और कम शुभ देह मिले यह तो ठीक है, परन्तु स्थूल और अशुभ हाथी - मत्स्य श्रादि की अथवा नरक की देह कैसे मिले ? अल्प सुवर्ण से छोटा ही सही, पर कलश सोने का ही बनता है, मिट्टी का नहीं ।
( ५ ) इस प्रकार अकेला पाप मानने वाले को भी यह आपत्ति है कि पाप के उत्कर्ष से दुःख- वृद्धि तथा पाप के अपकर्ष से दुःख का ह्रास हो, परन्तु सुख वृद्धि कैसे हो सकती है ? पाप अल्प भी दुःख का कारण हो सकता है, पर सुख का नहीं । विष प्ररूप ही मात्रा में हो तब भी वह आरोग्य वर्धक नहीं हो सकता ।
संमिश्र पुण्य-पाप का मत मिथ्या :
(६) संमिश्र पुण्य पाप जैसा तो कोई कर्म ही नहीं है, क्योंकि ऐसे कर्म का उत्पादक कोई कारण नहीं है । कर्म के कारण रूप में शुभाशुभ मन, वचन,
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