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काय योग गिना जा सकता है, (मिथ्यात्वादि कारण को तो अशुभ योग में अंतभूत कह सकते हैं), परन्तु एक समय में या तो शुभ, अथवा अशुभ, एक ही प्रकार का योग चलता है, और इससे तो या तो पुण्य, अथवा पाप एक का ही बन्ध होता है।
द्रव्य योग-भाव योग : भाव योग अमिश्र ही :
प्र०-शुभाशुभ मिश्रित योग दीखता है न ? उदाहरण के लिए प्रविधि से दान देने का विचार या उपदेश, या प्रविधि से जिन पूजा; यह अनुक्रम से शुभाशुभ मनोयोग-वाग्योग-काययोग है।।
उ०- नहीं; योग द्विविध है,-द्रव्य और भाव। इसमें योग-प्रवर्तक द्रव्य और मन-वचन-काय क्रिया, यह है द्रव्य योग, और उभय का हेतुभूत अध्यवसाय यह है भावयोग । द्रव्य योग में शुभाशुभ मिश्र भाव व्यवहार नय से होता है, परन्तु निश्चय नय से नहीं, वैसे ही भावयोग में मिश्रभाव नहीं। इसमें तो अकेला शुभ या अकेला प्रशुभ अध्यवसाय ही होता है। शुभाशुभ कोई अध्यवसाय नहीं होता। प्रागम में दो शुभ ध्यान, तीन शुभ लेश्याएं दो अशुभ ध्यान तथा तीन प्रशुभ लेश्याएं कथित हैं, परन्तु मिश्र कोई ध्यान लेश्या कथित नहीं है । (ध्यान के अन्त में लेश्या प्रवर्तित रहती है) । भावयोग लेश्या-ध्यानात्मक होता है । यह शुभाशुभ नहीं, प्रतः पुण्य पाप मिश्रित कोई बन्धन नहीं होता।
संक्रम में मिश्रित कर्म नहीं :
प्र०-शुभाशुभ कर्म में प्रशुभ-शुभ कर्म का परस्पर में संक्रम (अंत:प्रवेश, अंतर्मिलन) होता है, वह मिश्रित कर्म हुआ न ?
उ०-जैसे शुभ भाव से शुभ कर्म का बन्ध होता है, वैसे पूर्व बद्ध अशुभ कर्म का इस शुभ कर्म में संक्रमण होता है; वैसा ही अशुभ भाव से शुभ बन्ध, व अशुभ का शुभ में संक्रमण होता है । मिथ्यात्व का बन्ध होने के पश्चात् यदि विशुद्ध परिणाम हो, तो उसमें से समकित-मोहनीय का शुद्ध पुज तैयार होता है, उसका जीव पुन: मिथ्यात्व ज ते ही मिथ्यात्व में संक्रमण (प्रवेश) कर लेता है। इसी तरह संक्रमण मूल कर्म-प्रकृतिमो का नहीं, परन्तु आयुष्य कर्म
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