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श्रीर दर्शनमोह - चारित्र मोह को छोड़कर उत्तर प्रकृतियों का ही संक्रमण होता है । अब देखो कि बद्ध होते शुभ शातावेदनीयादि कर्म में पूर्वबद्ध प्रशातावेदनीयादि अशुभ कर्म का अथवा बद्ध होते अशुभ में पूर्व बद्ध शुभ कर्म का संक्रमण होता है, वह शुभाशुभ मिश्रकर्म जैसा दीखता है; किन्तु वहां तो संक्रमण होने के पश्चात् एक ही शुभ अथवा अशुभ स्वरूप रहता है। संक्रमित होने वाले का स्वरूप तो नष्ट हो जाता है और संक्रमण जिसमें हुग्रा उसी कर्म का स्वरूप रहता है । जैसे- शाता में प्रशाता का संक्रमण होता है, अंतमिलन होता है, वहाँ अशाता का स्वरूप मिट कर शातारूप ही हो जाता है, अतः मिश्रित पुण्य-पाप जैसा कोई कर्म नहीं ।
सारांश, पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र कर्म हैं । मिश्रित होते तो देवताओं को केवल सुख-बहुलता और नारकीय जीवों को केवल दुःखातिशय नहीं होता । श्रत:ये दोनों बहुलता के भिन्न निमित्त स्वतन्त्र पुण्य श्रीर स्वतन्त्र पाप सिद्ध होते हैं ।
प्रभावरूप स्वतन्त्र राशियाँ
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(७) तथा जगत में अच्छी बुरी और इसके दिखाई देती हैं, जैसे - मीठा, कडुप्रा व फीका रस, परन्तु शुभ का प्रभाव ही अशुभ या अशुभ का प्रभाव ही शुभ इतना ही नहीं । मीठा के प्रभाव में फीका होता है, कडुप्रा नहीं; कडुना स्वतन्त्र रस है । रोग मिटा तो आरोग्य तो आया, परन्तु प्रतिरिक्त शक्ति नहीं आई । यह लाने के लिए अलग दवाई लेनी पड़ती है । दुर्जनता के प्रभाव में सज्जनता तो कहलाती है, परन्तु महासुकृतकारिता नहीं । प्रति घोर दुष्कृतकारी तो केवल पाप का भागी होता है परन्तु पुण्य के लेश का भागी नहीं। इस प्रकार महा सुकृतकारी भी महापुण्योपार्जन श्रवश्य करता है, परन्तु पाप का लेश भीउ पार्जन करता है ऐसा नहीं । सुकृत- दुष्कृत्य, शुभभाव - अशुभभाव, आदि एक दूसरे के प्रभावरूप नहीं, किन्तु स्वतन्त्र हैं; श्रतः इनके कार्य पुण्य और पाप भी स्वतन्त्र ही होते हैं ।
पुण्य-पाप सम्बन्धी कुछ श्रावश्यक निर्देश :
अच्छे वर्ण-रस-गध-स्पर्श आदि फल दे वह पुण्य कर्म और बुरे दे वह पाप कर्म । ये कर्म सूक्ष्म कार्मरण वर्गणा नामक पुद्गल में से बनते हैं अतः ये
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