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(२) अनादि का नाश होता ही नहीं-ऐसा एकान्त नहीं है । प्रनादि कर्म-संयोग-परम्परा का अन्त हो सकता है, जैसे बीज सेका गया, अथवा फल जल गया, तो इसकी अनादि से चली आ रही परम्परा का अन्त पाता है । पुत्र ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया तो उसके पूर्व की, पिता-पुत्र पिता-पुत्र इत्यादि चली आ रही, अनादि परम्परा का अन्त आता है। मुर्गी अण्डा देने से पहले मर गई, अथवा अडा फूट गया, तो उसके प्रागे परम्परा न चलने से उसकी अनादि परम्परा अब आगे नहीं बढ़ेगी। अत: जैसे स्वर्ण-मिट्टी का सम्बन्ध प्रारम्भ से ही होने पर भी अग्नि-तापादि उपाय से टूटता है, उसी प्रकार तपसंयमादि उपाय से जीव-कर्म का सम्बन्ध भी नष्ट हो कर मोक्ष हो सकता है। इतना अवश्य है कि मोक्ष भव्य का होता है, अभव्य का नहीं।
भव्यत्व क्या ? कैसा ?
प्र.--कोई भव्य, कोई प्रभव्य क्यों ? नारक तियं च की भांति यह भेद कहते हो तो वह कर्मकृत सिद्ध होगा।
उ० नहीं यह स्वभावकृत भेद है। सत् रूप से समान होने पर भी जैसे स्वभाव से कोई चेतन, कोई अचेतन, ऐसे भेद होते हैं, इसी तरह जीव रूप से समान होते हुए भी कोई भव्य और कोई प्रभव्य ऐसे भेद सहज अनादिसिद्ध हैं।
प्र०-भव्यत्व यदि जीवत्व की भांति सहज अर्थात् अनादि हो तो नष्ट क्यों हो ? जीवत्व का नाश कहां होता है ? वैसे भव्यत्व का नाश क्यों ?
उ०-घट-प्रागभाव अनादि होते हुए भी इसका कार्य जो घट वह पैदा होते ही प्रागभाव नष्ट होता है, इसी भाँति भव्यत्व का कार्य 'मोक्ष' होने के साथ ही भव्यता का नष्ट होना युक्तिसंगत है । 'प्रागभाव तो प्रभाव रूप है, इसका साम्य भावात्मक भव्यत्व से कैसा हो?-ऐसा मत कहिये, प्रागभाव भी घटानुत्पत्ति से विशिष्ट पुद्गल समूहरूप होने से कथंचित् भावात्मक है। यह उस रूप में नष्ट हो सकता है, भले अनादि हो। भव्यत्व भी मोक्षयोग्यता रूप होने से मोक्ष सिद्ध होते ही नष्ट हो जाता है।
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