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है वह कारणपूर्वक ही होता है; और प्रकारण उत्पन्न होता हो तब तो अकारण ही नष्ट हो जाय । उत्पन्न होने के पश्चात् दीखे क्यों ? (ii) अनादि हो, तो फिर बिना कारण के कर्म केसे खड़े हुए श्रौर जीव को कैस चिपके ? ऐसे ही चिपकते हों तो मुक्त का भी चिपक जाएं ।
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(२) (तब पहिले कर्म, फिर जीव' यह भी नहीं हो सकता, क्यों कि बिना कर्ता के कर्म उत्पन्न होंगे ही कैसे ? यदि उत्पन्न हों तो प्रकारण नष्ट भी हो जाएं । (३) तो कर्म श्रौर जीव दोनों की साथ उत्पत्ति कहने में तो दोनों पक्षों के दोष हैं; और दोनों के बीच कर्तृ - कर्मभाव भी घटित नहीं हो सकता, जैसे बाएं - दाहिने सींग के बीच यह कर्तृ" - कर्म भाव नहीं है ।
इस प्रकार जीव और कर्म का बंध घटित ही नहीं होता; प्रतः बद्ध ही नहीं तो मोक्ष क्या होगा ? तब यदि कर्म- जीव का अनादि संयोग हो, तो श्रनादि का नाश नहीं होता, इसलिए भी मोक्ष घटित नहीं है । जीव श्राकाश का अनादि संयोग सर्वथा कहां नष्ट होता है ? कहने का सार यह है कि जीव का बंध या मोक्ष है ही नहीं ।
प्र०
उत्तर पक्षः- बंध - मोक्ष हैं :
(१) शरीर और कर्म की परम्परा अनादि हैं, जैसे बीज और फल की परम्परा । बिना कारण कार्य नहीं होता, श्रतः मानना होगा कि कर्म किसी पूर्व शरीर से बने हुए हैं । वह शरीर इसके पूर्वकृत कर्मों से बना हुआ था। ....... इस प्रकार अनादि प्रवाह चला आ रहा है । परन्तु ध्यान में रहे कि कर्म श्रौर शरीर ये दोनों तो करण रूप हैं, साधनरूप हैं, जब कि कर्ता जीव है । जीव के कर्म करने में शरीर साधन है और शरीर बनाने में कर्म साधन है । इस प्रकार कर्म जीव
के साथ संबद्ध होते हैं अतः जीव का बंध सिद्ध होता है ।
- कर्म हो तो दिखाई दे न ?
उ० – कर्म भले ही अतीन्द्रिय अप्रत्यक्ष हों, परन्तु कार्य के आधार पर इनका अनुमान होता है । वैसे तो तुम्हारी बुद्धि- - प्रक्ल भी दीखती नहीं, तो क्या यह नहीं है ? क्या तुम बुद्धिहीन हो ? ' न दिखे वह चीज नहीं यह नियम नहीं ।
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