Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 89
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७५ www.kobatirth.org शमी श्रादि पंचभूत जीव-शरीर के आधार से और उपयोग से सिद्ध हैं । वनस्पतिकाय यह मानव शरीर के भांति जन्म, जरा, जीवन, मरण, वृद्धि, छेदने के बाद भी समान अंकुरोत्पत्ति, आहार, दोहद (कुष्मांड - बीजोरा श्रादि) रोग - चिकित्सा श्रादि से जीव रूप सिद्ध होता है । वनस्पतिकाय में विशेष जीव इस प्रकार सिद्ध है : लजवन्ती बेल स्पृष्ट संकोच से सिद्ध स्वरक्षार्थं बाड़, दीवार श्रादि के श्राश्रय से सिद्ध निद्रा - जागरणसंकोचादि से सिद्ध Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बकुल अशोक कुरुबरु विरहक चंपा तिलक शब्दाकर्षण से सिद्ध रूपाकर्षण से गंधाकर्षण से रसाकर्षण से स्पर्शाकर्षण से 99 19 " For Private and Personal Use Only 19 पृथ्वीकाय जीव मांसाकुर की भांति समान जाति के अंकुर की वृद्धि से सिद्ध हैं | खोदे हुए पर्वत, खान, कई वर्ष बीतने पर तद्रूप भर जाते हैं। बिना जीव के यह कैसे हो ? काय जीव खोदी हुई भूमि में से मेंढक की भांति सजातीय स्वाभाविक प्रकट होने से सिद्ध होते हैं । मत्स्य की भांति प्राकाश में से मेघादि के विकार वश होने से सिद्ध हैं । वायुकाय जीव बैल की भांति पर प्रेरण के बिना तिछ अनियमित गति से सिद्ध हैं । अग्निकाय जीव आहार पर जीने से, और श्राहार वृद्धि से विशेष विकासमय - विकारमय बनने से सिद्ध हैं । इस प्रकार पृथ्वी आदि ये, आकाशीय विकार संध्या आदि से, भिन्न श्रौर मूर्त हैं, अतः जीवकाय हैं। इतना ही नहीं परन्तु यदि एकेन्द्रिय जीव ही न हों, तो संसार का उच्छेद ही हो जाय । क्योंकि अनादि अनन्त काल से मोक्ष-गमन चालू है, फिर भी यहां जीवों का पार नहीं। तो इतने जीव कहां ठहरे ? एकेन्द्रिय शरीर में ठहरना मानना होगा ।

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