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(२) घट को शून्य (प्रसत्) कहते हो इसमें भी ऐसा ही प्रश्न होगा। घड़ा और असत्त्व यदि (१) एक हो तो घड़ा ही पाया, भिन्न असत्ता-शून्यता जैसी कोई चीज सिद्ध नहीं हुई; (२) भिन्न कहो तो भिन्न असत्ता जैसी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती अतः प्रसिद्ध ।
(२) तुम शून्यतावादी हो, तो शून्यता को जानते-बोलते हुए तुम्हारा ज्ञान और वचन तुम से भिन्न है ? अथवा अभिन्न ! अभिन्न कहते हो तो अभिन्न वृक्षत्व पाम्रत्व की भांति तुमसे अभिन्न ज्ञान-वचन का अस्तित्व सिद्ध हा । भिन्न कहते हो तो तुम्हारे से ज्ञान भिन्न होने से तुम अज्ञानी और वचन भिन्न होने से तुम गूगे शून्यता को क्या सिद्ध कर सकोगे ?
(४) घड़ा और अस्तित्व में अस्तित्व घड़े का धर्म है, यह घड़े से अभिन्न और वस्त्रादि से भिन्न है। वस्त्रादि का अस्तित्व अलग अलग है वहां सब के एकत्व की कहां आपत्ति है ? वस्तु की सत्ता भिन्न-भिन्न है,अतः 'जो जो अस्ति वह-वह घड़ा' यह नियम गलत है । अगर पूछिये-'क्या है ? घट या अघट?' तो कहेंगे 'घट' । 'घड़ा क्या ?' तो 'अस्ति' । जैसे 'क्या है ? पाम्र या अन्य' तो कहेंगे आम्र । 'पाम्र क्या ? वृक्ष या अन्य ? तो 'वृक्ष'। भिन्न भिन्न अस्तित्व प्राया।
(३) उत्पन्न प्रावि चार विकल्पों से उत्पन्न में प्र-नियम
(१) प्रथम तो 'उत्पन्न, अनुत्पन्न, उभय अथवा उत्पद्यमान जन्म लेता है ?' ये जो चार विकल्प तुम उठाते हो वे उत्पन्न वस्तु को लेकर ? अथवा अनुत्पन्न को ? प्रथम अवस्था में, विकल्प निरर्थक है । उत्पन्न को ले कर अब क्या पूछना कि यदि उत्पन्न हो तो अब कैसे बने ? तब यदि कहते हो कि अनुत्पन्न को लेकर विकल्प करते हैं तो अनुत्पन्न गगनपुष्प में विकल्प क्यों नहीं उठाते ?
(२) घड़ा आदि वस्तु यदि सर्वथा उत्पन्न ही न होती हो, तो यह कुम्हारादि निमित्त मिलने से पहिले नहीं, और पीछे क्यों दिखाई देती है ? इसी तरह कालान्तर में दंड-प्रहारादि के बाद में क्यों नहीं दिखाई देती ? प्राकाशकुसुमवत् अनुत्पन्न ही हो तो सदा प्रदर्शन प्रदर्शन ही रहे ।
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