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भो तत्सापेक्ष होने से नष्ट ! अर्थात् सर्व नष्ट ! परन्तु ऐसा दीखता नहीं है । अपेक्षा रहित काल में भी ह्रस्व अथवा दीर्घ वस्तु तो यथावत् विद्यमान ही है और दीखती ही है । इससे स्वत: सिद्ध सत्ता की सिद्धि होती है।
(8) सब असत् हो तो ह्रस्व दीर्घ की अपेक्षा भी असत् ठहरेगी ! तो व्यवहार कैसे चले ?
प्र०-ऐसा स्वभाव है कि 'अपेक्षा से ह्रस्व दीर्घ व्यवहार होता है' स्वभाव में प्रश्न नहीं हो सकता।
उ०-अच्छा । तब तो यह स्वभाव अर्थात् 'स्व का भाव पर का नहीं' इससे स्वभाव, स्व, पर, ऐसा अलग अलग स्वीकार करने से वे सत् होंगे ! फलतः सर्व शून्यता का भंग !
(१०) अपेक्षा रखने की क्रिया, अपेक्षा करने वाला पुरुष, और अपेक्षगीय कर्म, अपेक्षणीय विषय, ये यदि असत् हो तो प्रति व्यक्ति नियत विशेष ही न रहें कि 'यह तो पुरुष है, विषय नहीं। अगर सत् हो तो सर्वशून्यता का भंग।
सारांश, जगत में वस्तु ४ प्रकार की होती है :- १. स्वतः सिद्ध, बिना कर्ता के बनने वाले मेघादि विशिष्ट परिणाम । २. परतः सिद्ध,-कुम्हार
आदि से बनने वाला घड़ा प्रादि । ३. उभयतः सिद्ध,-माता पिता और स्वकर्म से होने वाले पुत्रादि; तथा ४. नित्य सिद्ध, प्राकाशादि । यह "सिद्ध' अर्थात् उत्पत्ति की दृष्टि से । ज्ञान की दृष्टि से सिद्ध जैसे कि घड़ा स्वतः सिद्ध है; व ह्रस्वदीर्घत्वादि परतः सिद्ध अर्थात् परत: ज्ञात है । सर्व शून्य में यह व्यवस्था घटित नहीं होती।
(२) वस्तु और अस्तित्व का सम्बन्ध
(१) प्रथम तो 'घड़ा है, अस्ति,' पर 'नहीं ऐसा नहीं इस प्रकार घड़े को अस्ति रूप में स्वीकार कर फिर पूछते हों कि 'घड़े और अस्तित्व का सम्बन्ध क्या ? इससे दोनों की शून्यता असत्पन की सिद्धि नहीं होती। अन्यथा असत् खर-शृगादि में यह प्रश्न क्यों नहीं ?
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