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(२) यदि सभी शून्य हों, तो संदेह स्वयं भी असत् सिद्ध होता है ।
(३) संदेह भ्रमादि ज्ञान के पर्याय हैं, वे ज्ञेय से ही संबद्ध होता है । सर्वशून्य में तो ज्ञेय क्या और अज्ञेय क्या ?
प्र०-स्वप्न में वस्तु कुछ भी नहीं फिर भी संदेह होता है न ?
(४) उ०- स्वप्न में भी पूर्वदृष्ट अनुभूत अथला श्रत पर ही संदेह होता है । अतः स्वप्न में भी संदेह का निमित्त सत है । स्वप्न स्वयं भी ज्ञानरूप होने से सनिमित्तक ही होता है। सर्व शून्य में तो स्वप्न भी किस पर ?
(५) सर्व शून्य में निम्नलिखित भेद क्यों होते हैं ?:
१. एक स्वप्न, दूसरा अस्वप्न २. एक सत्य दूसरा असत्य ३. एक सच्चा नगर, दूसरा मायानगर ४. एक मुख्य दूसरा प्रौपचारिक ५. एक कार्य दूसरा कारण व कर्ता ६. एक साध्य, दूसरा साधन ७. एक वक्ता, वाच्य, दूसरा वचन ८. एक स्वपक्ष, दूसरा परपक्ष ६. एक गुरु, अन्य शिष्य १०. एक इन्द्रियां ग्राहक, दूसरा शब्दादि ग्राह्य ११. एक ऊष्ण दूसरा शीत १२. एक मधुर दूसरा कड़वा १३. पृथ्वी स्थिर, पानी प्रवाही, अग्नि उष्ण, वायु-चल आदि नियत स्वभाव क्यों ?
सभी समान, जैसे कि सभी स्वप्न ही या सभी सत्य हो क्यों नहीं ? व्यवहार से विपरीत ही क्यों नहीं ? या यदि सभी असत् तो भिन्न भिन्न रूप से ज्ञान ही कैसे हो?
प्र०-मृगजल की भांति इसका ज्ञान तो हो सकता है, परन्तु वह सच्चा नहीं । एक स्वप्न दूसरा अस्वप्न, आदि ज्ञान भ्रम रूप है ।
उ०-निश्चित अमुक प्रकार के ही देश-काल-स्वभावादि के साथ संबद्ध रूप में विषय का ज्ञान होने से इसे भ्रम नहीं कह सकते, जैसे कि, यहां तो चांदी है और वहां चांदी नहीं कलई है। कल वाला घड़ा अभी नहीं है। ... इत्यादि सच्चे ज्ञान।
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