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कार्यरूप हो सकती है । इसका कोई कार्य हो तो वह कारण कहलाये; परन्तु प्रथम यह कारण स्वरूप सिद्ध हो, तभी उसे कार्य कहें न ? कारण स्वयं सिद्ध नहीं होता, तो इस पर अवलम्बित कार्य भी कहां से सिद्ध हों ? इसी तरह कार्य भी स्वतः सिद्ध नहीं, अतः उस पर प्राधारित कारण भी कैसे सिद्ध हो ? इस प्रकार ह्रस्व-दीर्घ, दूर नजदीक, पिता-पुत्र प्रादि भी परस्पर सिद्ध होने पर सिद्ध होते हैं । बीच की अंगुली बड़ी सिद्ध हो तो पहली अंगुली छोटी सिद्ध होती है और यदि पहली अंगुली छोटी सिद्ध हो तो बीच की अंगुली बड़ी सिद्ध होती है । तात्पर्य यह है कि पदार्थ परस्पर सापेक्ष होने से स्वतः सिद्ध नहीं तो परतः भी सिद्ध नहीं । इसीलिए स्वतः परतः उभय से सिद्ध कैसे हो ?
(२) घटादि वस्तु में सत्-सत्व-प्रस्तित्व वस्तु से प्रभिन्न प्रथवा भिन्न ? (i) यदि प्रभिन्न, तो 'जो जो श्रस्ति वह वह घट' ऐसा प्राया अर्थात् सभी पदार्थ घटरूप बनेंगे | परन्तु फिर घड़ा भी सिद्ध नहीं । क्योंकि कोई घट हो तो इसे घट कहें न ? अर्थात् सभी असत् है । (ii) यदि सत् वस्तुसे भिन्न, तो वस्तु स्वयं सत् स्वरूप नहीं रहो ! असत् ही बनी । इस प्रकार प्रघट सिद्ध हुए बिना 'घट' शब्द से श्रभिलाप्य (अभिधेय) भी कैसे बन सकता है ? अर्थात् सत् की भांति अभिलाप्य भी कुछ नहीं । तात्पर्य यह है कि वत्तु और सत्व का सम्बन्ध घटित न होने से सब शून्य है ।
(३) इसी तरह (i) उत्पन्न वस्तु उत्पन्न होती है ? अथवा (ii) अनुत्पन्न वस्तु उत्पन्न होती है ? या (iii) उभय अर्थात् उत्पन्न - प्रनुत्पन्न उत्पन्न होती है ? (i) प्रथम नहीं, क्योंकि उत्पन्न को पुनः उत्पन्न करने का परिश्रम व्यर्थ होता है । उत्पन्न तो है ही, फिर भी उत्पन्न होता हो तो अनवस्था, अर्थात् उत्पन्न होता ही रहे ! (ii) जब कि अनुत्पन्न, तो अश्वशृंग जैसे कहलाता है; यह उत्पन्न हो ही नहीं सकता। (iii) तीसरा भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक पक्ष का दोष उभय पक्ष में लगता है । फिर उभय भी कोई वस्तु है या नही ? यदि है, तो उत्पन्न ही हो, उभय कैसे ? यदि नहीं तो अनुत्पन्न ही हो, उभय कैसे ? (iv) 'उत्पद्यमान जन्म लेती है' ऐसा कहते हो तो उत्पद्यमान भी है कि नहीं ? इसमें
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