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इन्द्रिय को एक एक ज्ञान भी हो सकता है ? ऐसा प्रश्न उठे, किन्तु ऐसी आपत्ति नहीं, क्यों कि स्वेच्छा से वे इन्द्रियां कुछ भी नहीं कर सकती । प्रात्मा इसमें मन लगावे तभी इससे ज्ञान होता है ।
(८-१-१०-११) ज्ञान ज्ञानपूर्वक होता है यह नियम है तो इस शरीर में होने वाला प्रथम ज्ञान ज्ञानपूर्वक होना चाहिये । इस पूर्वज्ञान का स्वामी श्रात्मा । वैसे इच्छा में, ऐसे ही देह में; इस प्रकार सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय-शोकादि में; कि यह किसी भी इच्छा-देह-सुखदुःखादि इच्छा-देह सुखदुःखादि-पूर्वक ही है। उन पूर्व का अनुभव करने वाला जीव ही हो सकता है ।
(१२) देह और कर्म का वीजांकुर की भांति अनादि प्रवाह चला श्रा रहा है; यह कर्ता ( भिन्न जीव ) के बिना नहीं हो सकता ।
(१३) दंड से बनने वाले घड़े के लिये दंड कर्ता नही, कररण है, वैसे शरीर से होने वाली क्रिया के लिये शरीर स्वयं कर्ता नहीं परन्तु करण है, साघन है । घड़े के कर्ता कुम्हार की भाँति यहाँ कर्ता आत्मा है ।
(१४ - १८) प्रथम गणधर में जैसा कहा गया है, वैसे (i) घर की भाँति निश्चित ( अमुक हो ) आकार वाले शरीर का कर्ता चाहिये । (ii) गंदे वस्त्र को उज्जवल बनाना, रंगना, उस पर प्रसन्न होना, आदि की भाँति शरीर को उज्जवल करना, सुशोभित करना इत्यादि शरीर का भोक्ता श्रीर ममत्व - कर्ता खुद शरीर नहीं, कोई और होना चाहिये । (iii) खंभे, खिड़की, दरवाजे की भाँति हाथ पांव सिर श्रादि की सुरक्षा चाहने वाला कौन ? शरीर नहीं, क्यों कि यह तो समूचे घर की भांति अंगों का समूह मात्र ister की भांति विषयों और इन्द्रियों के बीच ग्राह्य लिये स्वतंत्रेच्छ कुम्हार की भांति ग्रात्मा चाहिये ।
है । (iv) लोहे और
ग्राहक भाव होने के
(v) जो अन्य देश-काल
का अनुभव किया हुआ याद करे, वह अविनष्ट होता है । इसी तरह अन्य द्वारा अनुभूत अन्य को याद नहीं आता । श्रतः पूर्व देह नष्ट होते हुए भी नये शरीर से जो पूर्व देह में अनुभूत का स्मरण करने में समर्थ है वह शरीर से भिन्न आत्मा ही है ।
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