Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नियामक कहते हो।' जब कि वस्तुस्थिति विपरीत है । चैतन्य स्वयं प्रारणादि का नियमन करता है । हम देखते हैं कि प्राणायाम करने वाले स्वेच्छानुसार प्राणों की पूर्ति व रेचनादि करते हैं । सारांश यह है कि मुर्दे में चैतन्य नहीं, यह सूचित करता है कि भूत का यह सहज गुण नहीं है । प्रश्न- तो चैतन्य को माता के चैतन्य से उत्पन्न कहें, वह भी ऐसा कि मृत्यु तक ही पहुँचे । अब क्या हानि है ? उत्तर- इसमे बड़ी आपत्ति यह है कि मातृ-चैतन्य के संस्कारवासनाएँ पुत्र-चैतन्य में क्यों नही पाते ? माता क्रोधिनी और पुत्र शांत, या इससे विपरीत क्यों होता हैं ? शायद कहें कि थोड़ी विरासत मिलती है तो माता के शरीर में उत्पन्न होने वाली जू-लोख में यह क्यों नहीं ? यदि कहें शुक्र रुधिर के संयोग से उत्पन्न हो उसी से चैतन्य उत्पन्न होता है, तो फिर उसमें अल्पांश-स्थायी ही चैतन्य कहां से आया ? यदि कहें कि 'मृत्यु तक पहुँचे ऐसा ही चैतन्य माता उत्पन्न करतो है' तो प्रश्न यह है कि मृत्यु ही क्या वस्तु है ? अगर चैतन्य का नाश कहते हों, इसका मतलब यह पाया कि 'चैतन्य ऐसा पैदा हुअा है कि जो नाश तक रहे।' लेकिन प्रश्न तो यह है कि चैतन्य का नाश किस कारण से ? वात-पित्तादि की विषमता से कहो, तो वह ठीक नहीं, क्योंकि मृत्यु के पश्चात् विषमता हट जाने से पुनर्जीवन की आपत्ति लगेगी ! क्यों कि विषमता के विकारभूत ज्वर, खाँसी आदि एक भी विकार मृत्यु के बाद नहीं दीखते, इससे तो मानना चाहिये कि वात-पित्तादि विषम से सम हो गए ! और 'तेषां समत्वमारोग्ये' 'पारोग्य में उसका समत्व' कहा है, तो अब तो उल्टा पुनर्जीवन होना चाहिये ! तुम ही कहते हो वातादि सम हों तो चैतन्य हो। प्रश्न- सम वातादि वहां है ही नहीं, क्यों कि विकारों में रक्त आदि की विकृति मिटी ही नहीं, फिर पुनः चैतन्य कहां से पाए ? उत्तर- तो फिर यह कहो कि विकार क्यों न मिटे ? ये साध्य थे अथवा असाध्य ? साध्य हो तो उपचार से मिटने चाहिये । यदि कहिये असाध्य For Private and Personal Use Only

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