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समुदाय का धर्म कैसे बन सकता है ? रेती के एक एक कण में तेल नहीं, तो रेती एक लाख मन भी पीसने से एक तोला मात्र भी तेल निकलता है क्या ? जब कि प्रत्येक तिल में तेल है तो तिल समूह में से भी तेल निकलता है। इसी तरह मदिरा में जिस भ्रान्ति, मधुरता, एवं शीतलता का अनुभव होता है वह किसी न किसी अंश में दूब के फूल, गुड़ और पानी में क्रमशः विद्यमान है तभी इनका स्पष्ट अनुभव इनके मिश्रित समुदाय में दीखता है। अन्यथा चाहे जो वस्तुएं मिश्रित करने से मदिरा बननी चाहिये । अतः कहो कि प्रत्येक में हो वही समुदाय में आती है।
प्र०- तो प्रत्येक भूत में चैतन्य का अंश मानेंगे। उ० - ऐसा हा तो फिर प्रत्येक में चैतन्य दीखता क्यो नहीं ?
प्र०- प्रावृत है अतः नहीं दीखता। पंच भूत एकत्रित होने पर यह व्यक्त होता है।
उ०- इसका अर्थ तो यह हुआ कि 'भूत अकेला हो तब, चैतन्य का अन्य कोई प्रावरण तो है नहीं, अर्थात् स्वयं ही प्रावरण का रूप है, जिससे चैतन्य दीखता नहीं; और समूह में पुनः वही भूत व्यक्ति स्वयं व्यंजक अर्थात् प्रकट करने वाला बनता है।' किन्तु यह तो विरुद्ध है। जो प्रावरण, वही अभिव्यंजक (प्रकट करने वाला)! यह कैसे हो सकता है ?
प्र०- नहीं, ऐसा नहीं है, असंयुक्त भूतव्यक्ति तो प्रावरणरूप है, और अभिव्यंजक के रूप में भूतों का विशिष्ट संयोग है ।
उ.- भूतों का विशिष्ट संयोग तो शव में भी विद्यमान है, पर इनमें चैतन्य प्रकट नहीं है। इसका कारण ? यदि वायु या गर्मी के कारण कहो, तो ये तो इसमें भरी जा सकती हैं।
प्र०- नहीं, प्राण, उदान आदि वायु कहां से पैदा करोगे ? शव में ये नहीं अतः चैतन्य नहीं।
उ०- इसका अर्थ तो यह है कि 'प्राणादि वायु को चैतन्य-ज्ञानादि के
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