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वेद वाक्य का समाधानः-
इस प्रकार 'एष वः प्रथमो यज्ञो योऽग्निष्टोमः' यानी 'अग्निष्टोम तुम्हारा प्रथम यज्ञ है' यह वैसा न करने वाले की निंदा का वचन है । इसे सूचित करते है कि यह प्रथम किये बिना अन्य अश्वमेधादि यज्ञ करने से नरकगामी बनना पड़ता है । जिससे सम्हाल रखने की सूचना है । 'द्वादशामासाः संवत्सरः ' बारह महीनों का एक वर्ष होता है यह अनुवाद वचन है; यह मात्र वस्तुस्थिति प्रस्तुत करता है । प्रस्तुत में 'पुरुषवेदं ग्निं सर्व यह वचन उपर कहा वैसे पुरुष - श्रात्मा की स्तुति का सूचक है, परन्तु कर्म की वस्तुस्थिति का निषेधक नहीं । अन्यथा कर्म - प्रतिपादक 'पुण्यं पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन' श्रादि श्रन्य वेद-वाक्य गलत सिद्ध होंगे। इसी तरह जैसा पूर्व में कहा गया वैसे बिना कर्म अकेला पुरुष-तत्त्व कहने से पदार्थ-संगति नहीं होती ।
महावीर प्रभु की इस समझाइश से श्रग्निभूति गौतम भी प्रतिबोधित ये और उन्होंने ५०० विद्यार्थियों के साथ प्रभु की शरण में दीक्षा ग्रहण की ।
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