________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३) जिसके सम्बन्ध से वेदना हो वह भी मूर्त होता है; जैसे-अग्नि के सम्बन्ध से । इस प्रकार उदित (उदय-प्राप्त) कर्म के सम्बन्ध से वेदना होती है अतः कर्म मूर्त होते हैं।
प्रश्न-अच्छे बुरे ज्ञानमय विचारों का तन्दुरस्ती पर असर पड़ता है वहां यह नियम कहां रहा ? ज्ञान तो अमर्त है ।
उत्तर-वहां भी प्रभाव डालने वाले विचार जिनके सम्बन्ध से सूखदुःख होता है, वे मूर्त हैं; क्योंकि वे मूर्त मानसवर्गरणा से निर्मित मनरूप हैं ।
(४) जो वस्तु आत्मा और प्रात्मगुण ज्ञानादि से भिन्न हो और बाह्य कारणों से पुष्ट होती हो वह मूर्त है; जैसे-तेल से घड़ा पुष्ट दृढ़ बनता हैं, इसी प्रकार सुकृतों से पुण्य और दुष्कृतों से पाप पुष्ट होते हैं । अत: ये पुण्य और पाप मूर्त हैं । ज्ञानादि से भिन्न इसलिए कहा क्योंकि यह ज्ञान बाह्य वस्तु गुरू, पुस्तक, ब्राह्मी आदि से पुष्ट होने पर भी मूर्त नहीं हैं।
(५) जिसका कार्य परिणामी होता है वह स्वयं परिणामी होता हैं । एवं प्रात्मादि से भिन्न तथा परिणामी वस्तु मूर्त होती है। जैसे--दूध का कार्य दही परिणामी है, छाछ प्रादि परिणाम में परिणमित होने वाली दही वस्तु है तो दूध स्वयं परिणामी और मूर्त वस्तु है; इस प्रकार कर्म का कार्य शरीरादि परिणामी वस्तु है, अतः स्वयं कर्म भी परिणामी होने चाहिएं और इसीलिए मूर्त ही होते है । 'कर्म भी प्रात्मा का कार्य होता हुआ परिणामी है सो कारणभूत प्रात्मा भी परिणामी ही होनी चाहिए' ऐसा मत कहिए, चूकि कर्म अकेली शुद्ध प्रात्मा का कार्य नहीं, किंतु पूर्व कर्मयुक्त प्रात्मा का अर्थात् प्रात्मा पर लगे पूर्व कर्मों के विपाक का कार्य है और पूर्व कर्म तो मूर्त परिणामी है ही, तो कर्मयुक्त प्रात्मा भी कदाचित् मूर्त परिणामी हैं ।
प्रश्न-सुख दुःखादि की विचित्रता के लिए कर्मों को मानते हो, परन्तु आकाश के बादल, इन्द्र धनुष, संध्या आदि विचित्र विकारों को भांति ये सुख, दुःखादि स्वाभाविक क्यों नहीं हो सकते ? कर्म की क्या आवश्यकता है ?
For Private and Personal Use Only