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में अंधकार में भी संदेह नहीं होता कि 'मैं हूं अथवा नहीं' । 'मैं' का तो सदा निर्णय ही रहता है । यह 'मैं' का निर्णय श्रात्मा का ही निर्णय है ।
(६) गुरण के प्रत्यक्ष से गुरणी भी प्रत्यक्ष कहलाता है । जैसे— पर्दे के छेद में से घड़े का रूप दीखने पर घड़ा दिखाई देता है ऐसा व्यवहार है । इसी प्रकार स्मरण, जिज्ञासा, बोध, सुख श्रादि श्रात्मा के गुणों के प्रत्यक्ष से आत्मा ही मानी जाती है क्योंकि गुरण गुणीस्वरूप है ।
प्रश्न - स्मरणादि गुण तो शरीर के ही कहे जा सकते हैं न ? श्रात्मा मानने की क्या आवश्यकता है ।
उत्तर - शरीर मूर्त है, चक्षु का विषय है और जड़ है । इसके गुण गौरता, श्यामता, कृषता, स्थूलता इत्यादि होते हैं; परन्तु स्मरणादि नहीं, जो कि अमूर्त हैं — चैतन्यरूप हैं । शक्कर मिश्रित पानी में जो मीठापन लगता है वह पानी का नहीं परन्तु शक्कर का है। वैसे इसी शरीर में अनुभूत होने वाले ज्ञानसुखादि गुरण शरीर के नहीं परन्तु आत्मा के होते हैं। गुरण- गुणी सम्बन्ध अनुरूप का ही हो सकता है, जैसे- - राख का गुरण चिकनाहट नहीं परन्तु रुक्षता है । इस प्रकार स्मरणादि गुरण श्रात्मा के हैं ।
इस प्रकार श्रात्मा प्रांशिक रूप से प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष तो सर्वज्ञ ही कर सकते हैं और सर्वज्ञ बनने के का श्राचरण करना चाहिये । दूध में निहित घी भी, तावनादि विधियां करने से ही प्रत्यक्ष होता है ।
शेष प्रात्मा का सर्वांगीण लिए तपस्यादि विधियों दूध का दही, मक्खन,
इस प्रकार हम देखते हैं कि (१) सर्वज्ञ के केवलज्ञान - प्रत्यक्ष से, (२) संदेहादि स्फुरण के स्वप्रत्यक्ष से, (२) त्रैकालिक प्रत्यक्ष में 'में' के प्रत्यक्ष भास से, (४) स्वप्न में 'में हूं' के अनुभव से, (५) 'मैं' के संदेह के प्रभाव से, तथा (६) गुरण के प्रत्यक्ष से श्रात्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है ।
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