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नव नव शुभ भावना और ध्यान के योग्य प्रात्मा। (४) में अर्थात् संपूर्ण जगत के जीवों को महान् अभयदान दे सके ऐसी सहासत्व, महानीति, न्यायसंपन्नता, महा ब्रह्मचर्य, और महान् त्यागसेवन की अधिकारिणी आत्मा। (५) मैं अर्थात् विनय विवेक, विराग, विरति, विश्वास प्रादि 'वि',—(V for Victory) विजय के 'वि',-की अधिकारिणी आत्मा। (६) मैं अर्थात शांति, क्षमा, सहिष्णुता, सद् प्राशय, सद् विचार प्रादि अनेकानेक गुणों और उत्तम धर्म की अधिकारिणी प्रात्मा। (७) यावत् उत्तरोत्तर सुखमय सद्गति और परमपद के अनंतानंत सुख की अधिकारिणी प्रात्मा मैं',--इत्यादि इत्यादि । क्यों सुन्दर है न ? ऐसे सुन्दर स्वरूप वाले हमें कहां संकुचित होने या भूलने का है। इस विचारणा में विशेष विषयान्तर तो नहीं हुआ, परन्तु अब अन्य प्रमाणों के साथ विशेषतः प्रागम-प्रमाण में दर्शनों के मंतव्य और उनकी समालोचना देखें।
प्रात्म-सिद्धि के लिए उपमान प्रमारण-उपमान प्रमाण से भी आत्मा प्रमाणित होती है क्यों कि इसमें किसी के साथ तुलना करनी पड़ती है और
आत्मा की तुलना वायु आदि के साथ हो सकती है। प्रात्मा वायु जैसी है। शरीर में सुस्ती, पेट का फूलना, तगारे जैसी प्रावाज वायु छूटना प्रादि पर से भीतर के अदृश्य वायु का भी बल निश्चित होता है। इसी प्रकार शरीर में होती इष्ट-अनिष्ट के प्रति प्रवृत्ति-निवृत्ति, चेहरे पर दिखाई देती क्रोध-घमंड की मुद्रा, रक्त संचार, नसों का कंपन प्रादि से शरीर के भीतर अदृश्य प्रात्म-द्रव्य निश्चित होता है। वायु को हम अांख से देख नहीं सकते, परन्तु कहीं कपड़ा या कागज उड़ा हो तो कहते हैं कि वायु से उडा, इसी प्रकार इन्द्रियों व अंगीपांग की हलचल, मन की विचारणा, आदि हुई तो कहा जाता है कि यह प्रात्मा के कारण हई; भले हम आत्मा को प्रांख से न देख सकें। यदि कोई कहता है कि 'प्रात्मा वायु जैसी हो तो उसका स्पर्श से अनुभव होना चाहिए और यह प्राण, अपान उदान प्रादि की भांति अंगोपांग में भिन्न भिन्न होनी चाहिये'; तो उसका कथन ठीक नहीं है, क्यों कि दृष्टान्त सर्वदेशीय नहीं परन्तु एक
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