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यदि कर्म भोगता है, तो क्षणिक होने से पूर्व में स्वयं तो था ही नहीं फिर ये कर्म किसने किये ? स्मरण भी कैसे हो सकता है ? पहिले जाने, फिर इच्छा करे, फिर प्रवृत्ति करे, पहिले तत्त्वज्ञान, फिर चितन, फिर मनन- ध्यान, ये क्रमिक क्रियाएं क्षणिक यानी एकक्षण- स्थायी आत्मा में संगत कैसे हों ? यदि श्रात्मा विज्ञान स्वरूप ही हो तो श्रात्मा 'गुण' वस्तु हुई, 'द्रव्य' नहीं । फिर गुण का आधार कौन ? यदि कहें कि 'यही गुण और यही द्रव्य, तो फिर क्रिया क्या ? इसी प्रकार अन्य गुण भी कैसे घटित हों ? क्यों कि गुण में तो गुरण रहेगा नहीं !
अनेक हैं; देह
यह सब देखते हुए निष्कर्ष निकलता है कि श्रात्मा परिमाणमय हैं; नित्य भी हैं, साथ क्षणिक प्रर्थात् श्रनित्य भी हैं, कर्मों के कर्ता श्री भोक्ता दोनों हैं, कर्मबद्ध होती हैं और मुक्त भी होती हैं, ज्ञान स्वरूप भी है और ज्ञान से भिन्न द्रव्य स्वरूप भी हैं । जैन दर्शन अनेकान्त दृष्टि से श्रात्मा के ये सभी स्वरूप मानता है । इससे जैन श्रागम वैसी श्रात्मा के सम्बन्ध में प्रमाण स्वरूप मिलते हैं ।
दया- दान-दमन से आत्म- सिद्धि
इस प्रकार प्रात्मा जैसी वस्तु नहीं, ऐसे नास्तिकवाद का खंडन कर के प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम प्रमाणों से प्रात्मा सिद्ध की गई। यहां प्रभु श्री महावीरदेव गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति से कहते हैं 'हे गौतम इन्द्रभूति ! यदि श्रात्मा स्वतन्त्र तत्त्व हैं, तो ही तेरे वेदशास्त्र में कथित अग्निहोत्रादि यज्ञ के स्वर्गफल आदि घटित हो सकते हैं । यदि श्रात्मा ही न हो तो यहां से मर कर स्वर्ग में किसका जाना ? इसी तरह 'द द द' दया, दान और दया — इन तीन की भी क्या आवश्यकता ? निसर्ग का नियम है कि जैसा दो वैसा लो, जैसा बोवो वैसा फल पाम्रो । अब जैसे दुःख अपनी आत्मा को प्रिय नहीं होता, वैसे ही दूसरे को भी प्रिय नहीं होता; तब दूसरों को दुःख देने पर स्वयं को भी दुःख मिलता ही है; भले इस जीवन में नहीं तो यहां से बाद के जीवन में; किन्तु दुःख तो अवश्य मिलता है । अतः दूसरों को दुःख न पहुँचाते दया करनी चाहिए ऐसा सिद्ध होता है । दान देना भी कर्तव्य है; क्यों कि यहां
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