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- जैसे एक ही व्यक्ति से निर्मित दो रचनाएं, सामग्री समान होते हुए भी, अंतरंग उत्साह में अन्तर होने से असमान बनती हैं । इस प्रकार सुख दुख के मुख्य श्रव्यभिचारी अंतरंग कारण रूप में कर्म मानने चाहियें । पक्वान्न, चंदन, स्त्री आदि, तथा कांटा सर्दी, गर्मी, विष, आदि बाह्य कारण अनुक्रम से सुख और दुःख अवश्य देते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है । इसी से किसी को सुख के बदले दुःख श्रौर दुःख के बदले सुख मिलता है । इससे सूचित होता है कि सुख दुःख का नियमन करने वाला कोई कारण अवश्य है और वह है कर्म ।
(२) वर्तमान शरीर और पूर्व भव के शरीर के बीच कर्म शरीर · (कार्मण शरीर) न हो तो इसका अर्थ यह है कि श्रात्मा बीच में शुद्ध थी । तो फिर इसे इस जीवन में अमुक शरीर आदि ही क्यों मिले ?
प्रश्न - पूर्व शरीर के सुकृत दुष्कृत के हिसाब से ऐसा हो सकता है न ? उत्तर - नहीं, क्यों कि कार्य शरीरादि श्रब होते हैं और कारणभूत सुकृत- दुष्कृत क्रिया तो पूर्व भव में की थी तभी नष्ट हो गई । अब कार्य के लिए नियम तो ऐसा है कि कारण कार्य के पूर्व क्षण में रहना ही चाहिए । उदाहरण के लिए भोजन की क्रिया तो की, परन्तु फिर तुरन्त कुछ ऐसा खा लेने से वमन हुआ तो शरीर की पुष्टि क्यों नहीं होती ? भोजन क्रिया से शरीर की पुष्टि होती है ? वह क्रिया तो पहिले की गई है इससे पुष्टि होनी चाहिए | परन्तु कहना चाहिए कि इस क्रिया से रस, रुधिर आदि बने हों तो पुष्टि हो न ? लेकिन वमन से बने ही नहीं । इसी प्रकार सुकृत दुष्कृत से शुभाशुभ कर्म बने हों, जो कि आत्मा के साथ चले आए, तभी यह वर्तमान शरीर बनता है ।
(३) जीव दानादि क्रिया करता है इसका फल क्या ? जैसे कृषि का 'फल फसल होता है, तो दान का भी कुछ फल होना चाहिए, वही कर्म है । - ऐसे तो कृषि निष्फल जाती हैं न ?
प्रश्न -
उत्तर - जाती तो है यदि अन्य सामग्री में कमी हो; परन्तु फिर भी
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