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वेदान्त दर्शन वाले - ग्रात्मा को शुद्ध ब्रह्म के रूप में एक ही मानते हैं, परन्तु यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जगत के जीवों में जो भिन्नता-विचित्रता पाई जाती है, जैसे कि कोई सुखी - कोई दुःखी, कोई ज्ञानी - कोई मूर्ख कोई पशु- कोई मनुष्य, कोई धर्मात्मा श्रास्तिक - कोई पापी नास्तिक, कोई हिंसककोई दयालु, इस प्रकार श्रात्मा यदि एक ही हो तो कैसे हो सकता हैं ? एवं इससे बन्ध - मोक्ष भी घटित नहीं हो सकता ।
सांख्य और योग दर्शन वाले श्रात्मा-चेतन-पुरुष अनेक तो मानते हैं फिर भी उसे कूटस्थ नित्य- तीनों कालो में परिवर्तन के लिए अयोग्य और उसी से ज्ञानादि गुण विहीन कहते हैं। इसमें तो फिर श्रात्मा में चैतन्य ही क्या ? श्रात्मा में मनुष्य देव श्रादि भव के परिवर्तन क्यों ? बंधन और मोक्ष का क्या ? मोक्ष ही नहीं, तो मोक्षार्थं प्रयत्न फिर किस बात का ?
न्याय वैशेषिक दर्शन वाले:- :- श्रात्मा में ज्ञानादि गुरण तो मानते हैं परन्तु ज्ञान को सहज गुण नहीं, किन्तु प्रागन्तुक प्रर्थात् कारणवश नवीन उत्पन्न होने वाले गुण स्वरूप मानते हैं, कारण न हो तो कोई ज्ञानादि नहीं। वहां प्रश्न पैदा होता है कि यदि ज्ञान चेतन का स्वभाव न हो तो ज्ञान रहित काल में चेतन का चैतन्य स्वरूप क्या ? मोक्ष में तो सदा ज्ञान हीनता ही श्रायगा श्रर्थात् जड़ पत्थर जैसी मुक्ति बनेगी । न्याय दर्शन साथ ही श्रात्मा को एकान्त से नित्य और विश्वव्यापी कहते हैं, परन्तु यह यदि नित्य ही अर्थात् परिवर्तनीय ही हो तो समय-समय पर भिन्न २ अवस्थायें कैसे हो सकती हैं ? मोक्षमार्ग किसलिए ? क्योंकि इससे उसमें कोई परिवर्तन तो होगा नहीं । वैसे विश्वव्यापी अर्थात् भवांतर या देशांतर में गमनागमन किस प्रकार ? और सुख-दुःख का ज्ञान शरीर में ही क्यों ?
बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा विज्ञान स्वरूप और क्षणिक है । इसमें क्षणिक होने से परिवर्तन तो होता है परन्तु मूल ही गायब हो जाता हो, क्षण में सर्वथा मूलतः नष्ट हो जाता हो तो पूर्वकृत कर्मों का भोक्ता कौन ?
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