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होता नहीं।' प्रश्रद्धा करे, पर भी प्रायुष्य के ह्रास और इच्छात्रों की निष्फलता जो जारी है, उसमें तो कोई अन्तर नहीं पड़ता; तो क्यों कर्मतत्त्व पर श्रद्धा न की जाए ? क्यों भवभीरु, पवित्र संयमजीवन यापन करने वाले, सत्यवादी और एकान्त परमार्थ बुद्धि वाले शास्त्रकार जो लिखते हैं, जिस पर श्रद्धा करने के लिए यह दुर्लभ किंमती भव प्राप्त हुप्रा है, उस पर और उसे बताने वाले शास्त्रकारों पर श्रद्धा करके इस जीवन को धन्य न बनाया जाय ? श्रद्धा की जाएगी तो भविष्य में तदनुकूल पवित्र संयम और त्याग तपस्यादि से जीवन को अलंकृत बनाया जायेगा; परन्तु यदि मूल में श्रद्धा ही नहीं तो खान-पान, ऐशपाराम, गीत नृत्य, भोग विलाम, आदि पूर्ण पाशविक वृत्ति वाला जीव कीड़े मकोड़ों में तो क्या, हाथी-हथिनी, कोयल, मोर, गघे आदि पशुओं के अवतार में तो मिल ही जाता है। अतः ज्ञानियों के वचन पर श्रद्धा करनी चाहिये। अस्तु ।
अब किन कारणों से वस्तु होते हुए भी ज्ञान में नहीं पाती ? इस पर विचार करें। (१) अांख के बहुत नजदीक हो तो न दीखे; जैसे :-प्रांख में में लगायी हुई काजल, व आंख की पलक । (२) अति दूर जैसे रेल्वे पर दूरस्थ तार के स्तम्भ प्रांखों के सामने होते हुए भी दिखाई नहीं देते । (३) अति सूक्ष्स, जैसे-परमाणु या रोशनदाने की किरण में उड़ती हुई रज इतनी अधिक सूक्ष्म होती है कि किरण न हो तो उड़ती हुई भी नहीं दीखती। (४) इस तरह मन स्थिर न हो तो दर्शन के समय 'मूर्ति पर मुकुट है या नहीं ? चक्षु बराबर संतुलित हैं या नहीं ? पूजा लाल केसर की ? या पीले की है ?........' आदि बातों का ध्यान रहता नहीं । ऐसे अन्य भी कारण हैं कि वस्तु होते हुए भी दिखाई नहीं देती, वे ये
(सारिणी पृष्ठ ४० पर)
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