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प्रात्म साधक अनुमान का संक्षिप्त वर्गीकरण
१. प्रवृत्ति-निवृत्ति २. भूत-प्रवेश ४. काया-महल का कर्ता ४. देह संचालक-भोक्ता ५. इन्द्रिय-करण प्रयोक्ता ६. गात्र-प्रादेशक ७. गात्र प्रवृत्ति-नियंत्रक ८. इन्द्रिय-विवाद पंच ६. काय-ममत्व १०. मानसिक सुख दुःख वेत्ता ११. माता पिता से विलक्षण गुण १२. इष्टानिष्ट हेतु-ज्ञान
१३. युगल-पुत्र की विचित्र रुचि आदि १४. योग-उपयोग लेश्या संज्ञादि भाव १५. ज्ञानादि गुणाधार १६. संदेह १७. भ्रम १८. प्रतिपक्ष १६. निषेध २०. शुद्ध पद २१. पर्याय २२. अंतिम प्रिय २३. प्रिय-अप्रिय २४. जाति स्मरण
प्रात्मा अर्थात् क्या ? इतना भूलें नहीं कि प्रात्मा की सिद्धि जानने के पश्चात् इसे जगत की अपेक्षा अधिक प्रिय करना है। रोम रोम में बैठ जाना चाहिए कि 'मैं' अर्थात् सनातन प्रात्मा; 'मैं' अर्थात् पूर्वकृत कर्माधीन आत्मा; अशुभ मार्ग में मन वचन काया की दौड़धाम कर कर मैं अपने ही सिर नए नए कर्मों का भार लादने वाला प्रात्मा; मेरे ही द्वारा घटित, पालित एवं पोषत शरीर के कारण व्याधि से पीड़ित मैं प्रात्मा; मेरे ही शरीर से असामयिकअनिश्चित समय पर बहिष्कार पाने वाला में प्रात्मा, संसार की विविध योनियों में भटकता मैं प्रात्मा"....
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