Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ जितने मोती नहीं' – इसमें प्रमाणविशेष का निषेध है अर्थात् पूरे घटप्रमारण मोती का नही, किन्तु सिद्ध मोती में मात्र घट - प्रमाणत्व का निषेध है । ठीक इसी प्रकार यहां पूरे जगत्कर्ता ईश्वर का नहीं किन्तु सिद्ध वीतराग ईश्वर में जगत्कर्तृत्व का निषेध, जो कर्तृत्व कर्म श्रादि कारणों में प्रसिद्ध है । प्रश्न - खैर, फिर भी 'ईश्वर नहीं' इस निषेध से तो ईश्वर सिद्ध होता है न ? उत्तर - भले हो, ईश्वर के नाम से श्रीमन्त, राजादिऐश्वर्य वाले सिद्ध ही हैं और परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा भी सिद्ध है । (२०) जो व्युत्पत्तिमान शुद्ध पद है उसका वाच्य होता ही है; जैसे अश्व, 'प्राशु' शीघ्र जाए वह अश्व । वैसे यह जीव पद है तो इसका वाच्य जीव सिद्ध होता है 'जीता है' यही जीव । 'अतति इति' विभिन्न पदार्थो में जाता है, यह आत्मा । (२१) जिसके स्वतन्त्र पर्याय होते हैं उसका वाच्य स्वतन्त्र होता है, जैसे शरीर - देह — काया— कलेवर आदि शरीर के पर्यायों (other words) का वाच्य शरीर स्वतन्त्र है, इसी तरह जीव - चेतन - श्रात्मा - ज्ञानवान् प्रादि जीव के स्वतन्त्र पर्याय होने से स्वतन्त्र जीवद्रव्य सिद्ध होता है । काल्पनिक शब्दों पर यह बात घटित नहीं होती, जैसे— पटेलभाई के 'ट र र र' शब्द पर कोई अनुरूप पर्याव नहीं मिलती हैं । (२२) अंतिम प्रिय - जगत में ऐसा पाया जाता है कि कोई अवसर आने पर अधिक प्रिय के खातिर कम प्रिय वस्तु का त्याग किया जाता है, जैसे व्यापार के खातिर इतने ऐशआराम का परित्याग किया जाता है, क्यों कि व्यापार अधिक प्रिय है । परन्तु पैसे के लिए हानिप्रद व्यापार बंद किया जाता है क्योंकि उसकी अपेक्षा पैसा अधिक प्रिय होता है । किन्तु ऐसे प्रिय भी For Private and Personal Use Only

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