Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रह्लाद का अनुभव करता है जब कि दूसरे को उसमें मन्द रुचि होती है ऐसा क्यों ? वहां का वातावरण तो एकसा है फिर यह भेद क्यों ? स्पष्ट है कि पूर्व जन्म के तदनुकूल विचित्र संस्कार और उनकी न्यूनाधिकता के कारण ऐसा होता है । (१४) जीवन में दिखाई देने वाले मन-वचन काया के योग, पुरुषार्थं, इच्छा, प्रारण, ज्ञान-दर्शन का उपयोग, क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, कृष्ण लेश्यादि लेश्याएं, आहार-विषय-परिग्रह भय की संज्ञाएं, राग-द्व ेष हर्ष, उद्वेग, शोक, व्याकुलतादि अशुभ भाव, क्षमा, मृदुतादि और अहिंसा, सत्य, संयमादि शुभ भाव, ये सब किस के धर्म हैं ? जड़ शरीर के नहीं, क्यों कि शरीर एकसी स्थिति में रहने पर भी उनमें परिवर्तन होते रहते हैं, घड़ी भर प्रत्यक्ष, तो घड़ी भर अनुमान, अभी राग, तो थोड़ी देर में द्वेष, अभी अभी व्यापार का लोभ, परन्तु जरा सी उथलपुथल सुनते ही शांति, - यह सब परिवर्तन कौन लाता है ? और फिर मृत देह में इनमें से एक भी नहीं ! इससे साफ पता चलता है कि ये सब चेतन श्रात्मा के धर्म हैं, ये श्रात्मा के कार्य हैं । (१५) ज्ञान, सुख, दुःख आदि गुणों के आधार स्वरूप उनके अनुरूप ( मिलते जुलते ) ही द्रव्य चाहिए; संभव हैं कि द्रव्य स्पष्ट न भी दीखता हो । जैसे भीगी राख में पानी स्पष्ट नहीं दिखाई देता, परन्तु उसमें भोगापन निश्चित पानी का ही हैं, क्यों कि राख उसका अनुरूप द्रव्य नहीं है । इसी प्रकार शरीर में श्रात्मा प्रत्यक्ष नहीं, फिर भी ज्ञान सुखादि गुणों के अनुरूप द्रव्य श्रात्मा ही हैं, जड़ शरीर के अनुरूप गुण तो रूप, रस, स्थूलता, भारीपन श्रादि हैं । (१६) जगत में सत् (सिद्ध) वस्तु का ही संदेह होता है, आकाश कुसुमवत् असत् वस्तु का नहीं । 'टोकरी में श्राकाशकुसुम है या नहीं ?' ऐसी शंका नहीं होती । शरीर में श्रात्मा है कि नहीं, ऐसा संदेह होता है । वही श्रात्मा जैसी सत् वस्तु सिद्ध करता है । For Private and Personal Use Only

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