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ने ये.शरीर धारण किये हैं, जिससे दोनों के खाते (हिसाब-किताब) अलग अलग चलते हैं।
(१२) कुम्हार जानता है कि कोमल मिट्टी से घड़ा अच्छा बनता है, तभी स्व-इष्ट घड़े के लिए वह मिट्टी में प्रवृत्ति करता हैं । यह सूचित करता है कि इष्टानिष्ट की प्रवृत्ति-निवृत्ति के लिए इष्टानिष्ट का साधनस्वरूप ज्ञान तो होना ही चाहिये । नवजात शिशु को इष्टतृप्ति के लिए स्तनपान में प्रवृत्त बनाने के लिए आवश्यक 'यह स्तनपान इष्ट साधन है' ऐसा ज्ञान कहां से हुया ? कहेंगे 'माता करवाती हैं, पर नहीं, वह तो बालक के मुह में मात्र स्तनमुख रखती है, बस इतना ही; पर चूसने की क्रिया किसने सिखाई ? मुख स्याही-सोख अथवा लोहचुम्बक जैसा नहीं है जो स्वभावतः चूसे। यदि ऐसा हो तो बालक तृप्त होने के पश्चात् उसे स्वत: कैसे छोड़ देता है ? इससे आप को कहना ही पड़ेगा कि स्वभावत: नहीं किन्तु ज्ञान व इच्छा होने पर स्तनपान में प्रवृत्त होता है। यह स्तनपान तृप्ति का साधन होने का ज्ञान पूर्व जन्म के संस्कार से होता है। इस संस्कार के लिए अनुभवकर्ता के रूप में इसकी आत्मा को ही मानना चाहिये। अन्यथा संस्कार का प्राधार कौन ? शरीर तो जड़ है, व नया जन्मा हुअा हैं। इसे पूर्व संस्कार से क्या लेना देना ? और इसे इष्टानिष्ट का भी भान क्या ? शरीर को यदि भान हो तो पहिले खीर खाए और फिर कढ़ी पीए और इस प्रकार दोनों को पेट में इकठ्ठ करे क्या ? पेट में अलग अलग भाग हैं क्या ? नहीं, परन्तु वहां प्रात्मा का बस चलता नहीं, अतः उसे यह सब सहन करना पड़ता है, और मुंह में उसका चलता है अत: दों डाढों में भिन्न भिन्न वस्तुएं चबा सकता है। यह जड़ देह की नहीं पर चेतन प्रात्मा की कार्यवाही है।
(१३) इसी प्रकार एक ही माता-पिता के दो पुत्रों में-युगल में भिन्न भिन्न स्वभाव, पादत, सोक, रुचि, रागादि पाये जाते हैं; पर ऐसा क्यों, जब कि जनक-जननी वे ही हैं ?इसी तरह एक थोड़ी शिक्षा से सीखता है, थोड़े उपदेश से समझ जाता है, और दूसरा नहीं, ऐसा क्यों ? एक देवदर्शनादि में असीम
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