Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाला कौन ? तो कहते हैं प्रात्मा। चिमटा-संडासी स्वयं काम नहीं करती, उससे काम लेने वाला व्यक्ति होता है । (६) इन्द्रियां और गात्रादि किसी के प्रादेश के अनुसार काम करते हैं, तो स्वतन्त्र प्रादेशक कौन ? उत्तर स्पष्ट है-आत्मा। यही स्वेच्छा से आंख की पुतली को नचाती है, हाथ पांव चलाती है, फिर इच्छानुसार स्थिर भी रहती है आदि। शरीर को प्रादेशक नहीं मान सकते, क्योंकि शरीर स्वयं तो इन सब का संयुक्त रूप है, कोई एक स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं । प्रादेशक के रूप में हम मन को भी नहीं कह सकते; क्यों कि वह भी परतंत्र है । उसे कड़वी औषधि रुचिकर नहीं लगती फिर भी पीनी पड़ती है। कौन पिलाता है ? बीमारी में भी मिठाई–कुपथ्य खाने की अोर मन लालायित होता है, परन्तु उसे रोकता कौन है ? बस यही प्रात्मा । आत्मा स्वयं स्वामी-प्रोप्राइटर है, मन मैनेजर है। स्वामी की प्रगाढ़ रुचि के अनुसार मन तरंग करता है इन्द्रियों को प्रेरित करता है; हिंसा-अहिंसादि में प्रवृत्त करता है । आत्मा के इस महा मूल्यवान् स्वातंत्र्य के शुद्ध मोड़ और इन्द्रिय-मन के शुभ प्रवर्तन में जो सदुपयोग करता है वही भवसागर से पार उतरता है। (७) शरीर तथा गात्रादि प्रवृत्ति का नियामक-निरोधक कौन ? जैसे आती हुई छींक को रोकना, देखने में लीन प्रांख को बन्द करना, चलते चलते बीच में पांवों का रुकना, कहीं लघुशंका से निवृत्त होते विशेष भय में अटका देना, इसी प्रकार क्रोध से जो प्राक्रोश वचन बोले जाते उनसे बचाना, प्रादि सब का नियन्त्रण करने वाला कोन ? तो मिलता हैं प्रात्मा ही। (८) इन्द्रियों के बीच झगड़ा पड़ जाए तब न्यायाधीश कौन ? जैसे आंख देखती है कि चांदी है और स्पर्श कहता है कि कलई। दोनों को सोच कर निश्चित निर्णय देने वाली प्रात्मा है; हाथ या बुद्धि नहीं; क्यों कि ये तो साधन हैं। प्रांख आम का हरा रंग देख कर खट्टपन की कल्पना करती है, परन्तु प्रात्मा जीभ के पास परीक्षा कराती है, और मीठा स्वाद लगते ही अांख की कल्पना को असत्य सिद्ध करती है। बिना आत्मा के बिल्कुल भिन्न For Private and Personal Use Only

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