Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhanuvijay
Publisher: Jain Sahitya Mandal Prakashan

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ व्याप्ति-संबंध कभी पूर्व में गृहीत ज्ञात किया हुआ होना चाहिए - परन्तु यहां स्पष्ट करना श्रावश्यक है कि व्याप्ति संबंध दो प्रकार से होता है, - (१) अन्वय व्याप्ति, व (२) व्यतिरेकव्याप्ति : श्रन्वय व्याप्ति - यह वहां गिनी जाती है जहां ऐसा संबंध मिले, " जहां जहां हेतु वहां वहां साध्य' जैसे धुना और श्रग्नि । व्यतिरेक व्याप्ति - वहां गिनी जाती है जहां प्रन्वय से विपरीत संबंध हो, - 'जहां जहां साध्य नहीं, वहां वहां हेतु नहीं ।' जैसे - सरोवर में अग्नि नहीं तो धुप्रा भी नहीं । इतर दर्शनों में जिनेन्द्र देव की इष्टदेव मानने का नहीं, तो जैनत्व नहीं । अब देखो कि ऐसे भी अनुमान होते हैं जहां ग्रन्वयव्याप्ति नहीं किन्तु मात्र व्यतिरेकव्याप्ति संबंध ही मिलता है तो उससे अनुमान नहीं होता है; जैसे, — मनुष्य की विलक्षण चेष्ा से उसे भूत लगने का अनुमान होता है; वहां वहां श्रन्वयव्याप्ति संबंध कहां मिलता है, कि 'जहां जहां विलक्षण चेष्टा, वहां वहां भूत का लगना ? ऐसा पूर्व में प्रत्यक्ष कहीं नहीं देखा है; क्योंकि भूत दिखाई देने वाली वस्तु ही नहीं है । फिर भी 'जहां भूत का लगना न हो वहां विलक्षण वेष्टा नहीं, ' - ऐसा व्यतिरेकव्याप्ति संबंध मिलता है; तो इस पर भूत-प्रवेश का अनुमान हो सकता है । ठीक इसी प्रकार मृत शरीर में नहीं, पर जं वित शरीर में चेष्टा प्रवृत्तिनिवृत्ति दिखाई देती है इस पर उपरोक्त उदाहरण में भूत-संबंध की भांति - इसमें श्रात्म-संबंध का अनुमान होता हैं । कह सकते हैं कि जहां जहां श्रात्मसंबंध नहीं वहां वहां स्वतन्त्र चेष्टा नहीं ।' (२) यंत्र तो नियत - नियमित प्रवृत्ति वाला होता है. परन्तु शरीर तो यंत्र की अपेक्षा विचित्र विचित्र प्रवृत्ति वाला है अतः इसका कारण है किसी का अंतःप्रवेश; जैसे - भूत- प्रवेश वाला शरीर । (२) काया एक सुन्दर दो स्तम्भमय महल जैसा है, तो इसका बनाने For Private and Personal Use Only

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