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को तोड़ने की तैयारी की' । सोचें, इन्द्रभूति को अभिमान होते हुए भी सामने वाले की शक्ति-योग्यता का कैसा उचित भान है ? यही कहते हैं कि 'ये तो सकल दोष रहित अंतिम तीर्थकर हैं। प्रोह ! ईश्वर के अवतार तुल्य प्राप को जीतने की इच्छा करने की मैंने कैसी मूर्खता की ?' अभी तो जिनशासन प्राप्त किया नहीं है, जैन तत्त्वों को यथास्थित समझा नहीं, जैन धर्म पर श्रद्धालु बना नहीं, फिर भी वस्तुस्थिति को ठीक समझ कर अपनी मूर्खता का आत्मनिरीक्षण करते हैं। क्यों ? वस्तु का विवेक है। फिर भी अब ऐसे प्रभु की शरण लेते नहीं, यह हृदय कैसा ? सोचते हैं-'क्या हो, कहाँ जाऊँ ? शिव मेरी कीर्ति की रक्षा करे !' यह है मिथ्यात्व का प्रभाव कि सामने जगद्गुरु ईशावतार हैं, ऐसा समझते हुए भी रक्षण की याचना शिव के पास की जा रही है।
पुनः शेखचिल्ली की तरंगों में चढ़ते हैं। कहावत है न--'हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा' इसलिए सोचते हैं कि 'मेरे सम्पूर्ण शास्त्र-ज्ञान से यदि इन एक को जोत लू तब तो मेरी कीर्ति तीनों लोकों में प्रसारित हो जाय । अहाहा ! फिर तो मेरा महत्त्व, मेरा स्थान, कैसा ? वर्णनातीत !' यह कैसी तरंग है ?
बात सही है, प्रभु के हाथों ये मोह और अज्ञानता पर ऐसी प्रबल विजय प्राप्त करने वाले हैं कि ये तीनों लोकों मे यशस्वी होने वाले हैं। पर यह सब प्रभु के हाथों से एक बार तो हार खा कर ही होना है। गुरु से हम हारे इसमें हमारी जीत ? अथवा गुरु को जीतने में हमारी जीत ? प्रभु के पास श्रा कर भी, व प्रभु से सुन कर भी यदि मन में मान लिया होता कि 'मैं कुछ भी हारा नहीं । यह तो इनके दुर्ग में इन्हीं के मंडल के बीच इन्होंने हमें मूढ (पराजित) बताया, इससे क्या ?' इस प्रकार लोचे डाले होते तो मोह पर सच्ची जीत नहीं होती। इसलिए इस कलिकाल में तो विशेषकर गुरुजनों के सम्मुख अपना बाह्य रूप दिखाना छोड़कर अपने दोषों को स्वीकार लेने में तथा दोष न हो तो भी 'क्षमा करो, प्रभु ! मैं भूला' इस प्रकार नम्र बनने में ही इस महा मूल्यवान् मानव जीवन की सफलता है ।
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